tag:blogger.com,1999:blog-91198913280430197032024-03-14T17:46:34.212+05:30सात सुरों की धुनशिक्षा : पीएच. डी. तक।http://www.blogger.com/profile/14437295166160584135noreply@blogger.comBlogger22125tag:blogger.com,1999:blog-9119891328043019703.post-78558687634591723612010-01-31T22:34:00.002+05:302010-01-31T23:25:10.446+05:30विरासत का भारवाद-विवाद-संवाद गोष्ठियों में <br />अपनी संकटग्रस्त आस्था के लिए <br />तर्क-वितर्क-सतर्क बहसों की गिरफत में <br />घुट कर <br />जब लौटता हूं घर- <br />अपने अन्तरकक्ष में, <br />मैं संतुष्ट आदमी नहीं रह जाता। <br />कई बेसुरी आवाजें <br />तमाम सवालों का जायका<br />कसैला कर देती हैं<br />कि साठ सालों के सफर में <br />लाल आंधी की ग्लोबल रफ्तार <br />सियासी वक्त की दौड़ में <br />पीछे क्यों रह गयी ?<br />कई द्वीपों पर बागी परचम <br />वक्ती तौर पर लहराया जरूर,<br />मगर तिरंगे देश की धरती <br />रह गयी प्यासी परती,<br />इतिहास के रास्तों पर <br />मील के दीगर पत्थर गड़ते रहे <br />बारबार-लगातार, <br />और हमारे साथियों की बैरक में<br />तकरीरें चलती रहीं हांफती चाल।<br />फिलहाल जम्हूरी दस्तावेजों के कातिब <br />पूछ रहे यह बेमुरब्बत सवाल<br />कि उस सूर्ख परचम को काट-छांट कर<br />किसने बनाये बीस रूमाल ?<br />उस सुलगती अंगीठी को जल समाधि <br />कहां-कहां मिली ?<br />कि आगे दिखती है अब बंद गली। <br />विसर्जन की वह जगह कौन-सी है-<br />हिन्द महासागर या हुगली ?<br />मुश्किल में है इंकलाबी इन्तजार<br />कि अब किसके नाम दर्ज हो<br />इस अपाहिज विरासत का भार ?शिक्षा : पीएच. डी. तक।http://www.blogger.com/profile/14437295166160584135noreply@blogger.com3tag:blogger.com,1999:blog-9119891328043019703.post-23956270649514606922010-01-02T22:10:00.002+05:302010-01-02T22:43:38.748+05:30गीत जब खो जाता हैआज का सबसे जटिल सवाल<br />मित्र, मत पूछो यह फिलहाल,<br />गीत कब खो जाता है,<br />लबों पर सो जाता है।<br />सुबह-सबेरे <br />सब को घेरे<br />अफवाहों का दबा-घुटा-सा शोर<br />कि आज की भोर<br />कत्ल की ओर...<br />मुहल्ले में चौराहे बीच<br />रक्त की जमा हो गयी कीच।<br />किसी का खून हो गया, प्रात<br />एक झुरझुरी भरा आघात<br />कि बाकी दिन क्या होगा हाल<br />सुबह का रक्त सना जब भाल ?<br />चार कंधों पर चलते शब्द<br />पसर जाते हैं<br />पस्त निढाल।<br />सहमते-से सारे एहसास<br />कि ऐसी हत्याओं के पास<br />एक आतंक<br />घूमता है बिल्कुल निश्शंक,<br />जेल से छुटे हुए<br />खुफिया चेहरों के डंक।<br />चतुर्दिक झूठा रक्षा चक्र<br />आम जीवन-समाज दुश्चक्र।<br />शब्द हो जाते हैं लाचार,<br />नहीं दिखता कोई उपचार।<br />प्रशासन देता सिर्फ कुतर्क-<br />तर्क का बेड़ा करता गर्क।<br />भेड़ है कौन ? भेड़िया कौन ?<br />व्यवस्था मिटा रही यह फर्क।<br />किन्तु मथता है एक विचार<br />कि सोचो अब<br />क्या हो प्रतिकार।<br />अजब है ऐसा लोकाचार<br />कि पशुता का अरण्य विस्तार...<br />इसी बीहड़ जंगल के बीच<br />प्रश्न जब ले जाते हैं खींच,<br />गीत तब खो जाता है,<br />लबों पर सो जाता है।शिक्षा : पीएच. डी. तक।http://www.blogger.com/profile/14437295166160584135noreply@blogger.com3tag:blogger.com,1999:blog-9119891328043019703.post-50992353442213553412010-01-02T21:15:00.003+05:302010-01-02T21:37:09.989+05:30दोहे का दहलाकरे ठिठोली समय भी, गर्दिश का है फेर,<br />यश-वर्षा की कामना, सूखे का है दौर।<br />महंगाई का जोर है, किल्लत की है मार,<br />तिस पर घी भी ना मिले, कर्ज हुआ दुश्वार।<br />दास मलूका कह गये, सबके दाता राम,<br />संत निठल्ले हो रहे, उन्हें न कोई काम।<br />नाम-दाम सब कुछ मिले जिनके नाथ महंत,<br />कर्म करो, फल ना चखो, कहें महागुरू संत। <br />हरदम चलती मसखरी, ऐसी हो दूकान,<br />मौन ठहाके से डरे, सदगुण से इनसान।<br />दस द्वारे का पींजरा, सौ द्वारे के कान,<br />सबसे परनिंदा भली, चापलूस मेहमान।<br />ऐसी बानी बोलिए जिसमें लाभ अनेक,<br />सच का बेड़ा गर्क हो, मस्ती में हो शोक।<br />आडम्बर का दौर है, सच को मिले न ठौर,<br />राजनीति के दावं में पाखंडी िसरमौर।<br />अपना हो तो सब भला, दूजे की क्या बात !<br />जगत रीति यह है भली दिन हो चाहे रात।<br />राज रोग का कहर है, आसन सुधा समान,<br />जिसको कोई ना तजे, उसे परम पद जान।शिक्षा : पीएच. डी. तक।http://www.blogger.com/profile/14437295166160584135noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-9119891328043019703.post-33727238468583656892009-12-19T18:12:00.002+05:302009-12-19T18:53:40.270+05:30साठ साल के धूपछांही रंग-3साठ ऋतुचक्रों को समर्पित इस यात्रा में<br />रम्य घाटियों से गुजरते हुए<br />हर मौसम में आठों पहर<br />सिसिफस की शापकथा का साक्षी रहा मैं।<br />अनगिनत बार शिखर छूने का भरम<br />और ढलान पर सरकते हुए<br />धरातल पर वापसी का करम।<br />किसी क्षण मुझे यह पता नहीं चला<br />कि त्रिशंकु को नियति ने क्यों छला !<br />मैं तंद्रिल कविताओं की गोष्ठी में<br />आता-जाता रहा कई बार,<br />मधुमती भूमिका से लेकर<br />बले-बले की धुन में चल रहे <br />मदहोश महफिल में<br />तुमुल कोरस का श्रोता<br />रहा बरसों तक।<br /><br />पता नहीं,<br />कितना सही है यह सहज ज्ञान<br />कि थिरकती है देह, और हुलसता है मन,<br />इससे अधिक कुछ नहीं है जीवन।<br />कोलाहल में आत्मा सो जाती है अक्सर<br />और जागती है कभी-कभी<br />अनहद भोर की चुप्पी में।<br /><br />राग-विराग की सेज पर<br />करवटें बदलती आयी हैं सदियां,<br />श्रद्धा और इड़ा की लहरीली चोटियों के बीच<br /><span class="">प्रलय की उत्ताल तरंगों पर </span><br />नौका विहार का पहला यात्री था मनु।<br />आज भी देह का दावानल तपता है<br />मानसरोवर की घाटी में,<br />उस जल प्लावन का प्रतिपल साक्षी है<br />जो यायावर-कवि<br />उसे विद्याभूषण कहते हैं।<br /><span class=""></span>शिक्षा : पीएच. डी. तक।http://www.blogger.com/profile/14437295166160584135noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-9119891328043019703.post-54880269642357785182009-12-18T09:26:00.004+05:302009-12-18T14:53:56.433+05:30साठ साल के धूपछांही रंग-2इस सुरमई मौसम में<br />मुश्किलों की बहंगी ढोती जिन्दगी<br />सिहरती है।<br />अतृप्त स्वाद, रेशमी स्पर्श,<br />मनहर दृश्य, गुलाबी गंध<br />और घटाटोपी कुहासे में<br />अनगिनत ऐन्द्रिक भूचाल<br />सदाबहार कामनाओं को<br />रसभरे इशारे करते हैं।<br /><br />जिस प्रेमग्रंथ का साठवां संस्करण<br />प्रस्तुत है मेरे सामने,<br />उसमें अनगिनत अनलिखी कविताएं<br />ओस-अणुओं में दर्ज हैं।<br />कुछेक लिखी गयी थीं गुलाबी किताबों के<br />रूपहले पन्नों पर।<br />कई अनछपी डायरियां<br />संस्मरणों में ढल गयी हैं,<br />और तमाम गीली स्मृतियां<br />उच्छवासों में विसर्जित हो चुकी हैं।<br /><br />ओस में नहायी गुलाबों की घाटी<br />भली लगती है मुझे आज भी,<br />मगर फूल तोड़ना सख्त मना है यहां।<br />मित्रो, वर्जित फलों की सूची लंबी है,<br />और सभाशास्त्र में उनके स्वाद<br />सर्वथा निषिद्ध घोषित हैं।<br />आदम और हव्वा की पीढ़ियां<br />एक सेब चखने की सजा<br />भुगतती रही हैं बारबार।<br />लेकिन स्मृतियां निर्बंध शकुंतलाएं हैं,<br />उनका अभिज्ञान रचता हूं मैं।शिक्षा : पीएच. डी. तक।http://www.blogger.com/profile/14437295166160584135noreply@blogger.com2tag:blogger.com,1999:blog-9119891328043019703.post-43945042904243348772009-12-17T13:52:00.003+05:302009-12-17T14:45:34.789+05:30साठ साल के धूपछांही रंगएक :<br />कागज पर शब्द लिख कर सोचता हूं<br />सार्थक हो गया अपना अनकहा,<br />फागुन से जेठ तक<br />हर मौसम में भला-बुरा जो भी सहा।<br /><br />सपनों से अनिद्रा तक<br />चुंबन बरसाती अदाओं के तोरण द्वार<br />सजा कर<br />अस्तित्व को घेरते रहे कुछ शब्द-<br />रंग, गंध, स्पर्श, स्वाद,<br />सुख, आनन्द, उत्सव, समारोह,<br />सेहत, जवानी, रूप-सौन्दर्य,<br />मधु, मदिरा, सुधा,<br />वक्ष, होंठ, कदलिवन,<br />आकाश, क्षितिज, शून्य,<br />आत्मीय, संगी, मित्र, प्रशंसक,<br />खरीदार, दरबारी, पुजारी,<br />पहचान, सम्मान, जय-जयकार,<br />भ्रान्ति, दिवास्वप्न, मिथ्या विस्तार।<br /><br />यह सतरंगी जिल्दोंवाली डायरी<br />पलट कर देखता हूं जब भी फुरसत में,<br />अंधे एकान्त का अक्स<br />खुल जा सिम-सिम की तर्ज पर<br />खुलता है यकायक।<br />अजन्ता-एलोरा के मादक रूपांकन,<br />कोणार्क के सुगठित प्रस्तर शिल्प<br />और मांसल चैनलों के वर्जनामुक्त दृश्य<br />मन के रडार पर अंकित हो जाते हैं<br />खुद-ब-खुद।<br /><br />इस दिलकश संचिका को<br />बचाये रखने की जुगत नहीं थी अपनी,<br />फिर भी जाने कैसे<br />मन के नामालूम अंधेरों में<br />वर्षों छिपती रह कर<br />वह जीवित रही है<br />और बदराये मौसम में कभी-कभी<br />लपटीली इबारतों के साथ<br />मेरे चश्मे पर घिरती रही है।शिक्षा : पीएच. डी. तक।http://www.blogger.com/profile/14437295166160584135noreply@blogger.com1tag:blogger.com,1999:blog-9119891328043019703.post-61479072967052797602009-12-12T22:21:00.014+05:302009-12-17T14:50:05.199+05:30गर्द-गुबार का इजहारअरे ओ खजांची,<br />जब तुम्हारे सामने रखी होंगी<br />तिजोरी की चाबियां,<br />मगर वहां तक पहुंचने में<br />असमर्थ होंगे तुम्हारे हाथ,<br />चेक बुक पड़ा होगा मेज पर<br />और दस्तखत करते कांपेंगी उगलियां,<br />जब छप्पन भोग की सजी हुई थाल से<br />जायकेदार निवाले<br />नहीं कर सकोगे अपने मुंह के हवाले,<br />जब कभी प्यास से अकडी़ होगी हलक<br />मगर गिलास नहीं पहुंचेंगे होंठों तक,<br />तो सोचो कैसा होता होगा<br />लाचार जिन्दगियों का दुख-जाल !<br /><br />अबे ओ थानेदार,<br />जब भूख से ऐंठती हों अंतिड़यां<br />और घर में आधी रोटी भी<br />मयस्सर नहीं हो,<br />न फ्रिज, न लॉकर,<br />न दराज, न तिजोरी,<br />न चेक बुक, न नगदी,<br />और चूल्हा हो ठंढा, देगची हो खाली,<br />तो कैसे बन जाता है<br />कमजोर आदमी मवाली !<br /><br />अजी ओ जिलाधीश,<br />कब तक कतार में झुके रहेंगे<br />ये शीश ?<br />बकरे की अम्मा कब तक मनायेगी खैर,<br />जल में रह कर कैसे निभे मगर से बैर !<br />जब भारी जुल्म-सितम तारी हो,<br />सिर्फ सिफर जीने की लाचारी हो,<br />जिन्दा लाशों का हुजूम हो<br />गलियों में, सड़कों पर,<br />और तमाम रास्ते हों बंद,<br />तब कहां जायेगी यह दुनिया<br />अमनपसन्द ?<br /><br />जरा सुनो सरताज,<br />यह आज देता है किस कल का आगाज ?<br />क्यों मांगने वाले हाथ<br />मजबूरन बंदूक थाम लें ?<br />क्यों मेहनतकश लोग<br />बेइंतहा गुरबत का इनाम लें ?<br />बंधुआ अवाम को जिल्लत की जेल से<br />निकलने के लिए,<br />देश और दुनिया को बदलने के लिए<br />क्या तजवीज है तुम्हारे पास ?<br />ठोस जमीन पर चलो,<br />मत नापो आकाश।शिक्षा : पीएच. डी. तक।http://www.blogger.com/profile/14437295166160584135noreply@blogger.com1tag:blogger.com,1999:blog-9119891328043019703.post-12637143319023418752009-12-08T12:45:00.007+05:302009-12-08T13:56:48.387+05:30अथ से इति तकभाई तुलसीदास!<br />हर युग की होती है अपनी व्याधि व्यथा।<br />कहो, कहां से शुरु करूं आज की कथा ?<br />मौजूदा प्रसंग लंका कांड में अंटक रहा है।<br />लक्ष्मण की मूर्च्छा टूट नहीं रही,<br />राम का पता नहीं, <br />युद्ध घमासान है,<br />मगर यहां जो भी प्रबुद्ध या महान हैं,<br />तटस्थ हैं,<br />चतुर सुजान हैं।<br />जहर के समन्दर में<br />हरियाली के बचेखुचे द्वीपों पर<br />प्रदूषण की बरसात हो रही है।<br />आग का दरिया<br />कबाड़ के पहाड़ के नीचे<br />सदियों से गर्म हो रहा है।<br />भाई तुलसीदास!<br />आज पढ़ना एक शगल है,<br />लिखना कारोबार है,<br />अचरज की बात यह है<br />कि जिसके लिए किताबें जरूरी हैं,<br />उसे पढ़ना नहीं सिखाया गया,<br />और जिन्हें पढ़ना आता है,<br />उन्हें जुन्म से लड़ना नहीं आता।<br />इसलिए भाषण एक कला है,<br />और जीवन एक शैली है।<br />जो भी यहां ग्रहरत्नों के पारखी हैं,<br />वे सब चांदी के चक्के के सारथी हैं।<br />वाकई लाचारी है<br />कि प्रजा को चुनने के लिए हासिल हैं<br />जो मताधिकार,<br />सुस्थापित है उन पर<br />राजपुरूषों का एकाधिकार।<br />मतपेटियों में<br />विकल्प के दरीचे जहां खुलते हैं,<br />वहां से राजपथ साफ नजर आता है,<br />और मुझे वह बस्ती याद आने लगती है<br />जो कभी वहां हुआ करती थी-<br />चूंकि आबादी का वह काफिला<br />अपनी मुश्किलों का गद्ठर ढोता हुआ<br />चला गया है यहां से परदेस -<br />सायरन की आवाज पर<br />ईंट भद्टों की चिमनियां सुलगाने,<br />खेतों-बगानों में दिहाड़ी कमाने <br />या घरों-होटलों में खट कर रोटी जुटाने।<br />भाई तुलसीदास !<br />जब तक राजमहलों के बाहर दास बस्ितयों में<br />रोशनी की भारी किल्लत है,<br />और श्रेष्ठिजनों की अद्टालिकाओं के चारोंओर<br />चकाचौंध का मेला है,<br />जब तक बाली सुग्रीव के वंशजों को<br />बंधुआ मजदूर बनाये रखता है,<br />विभीषण सही पार्टी की तलाश में<br />बारबार करवटें बदल रहा है,<br />और लंका के प्रहरी अपनी धुन में हैं,<br />तब तक दीन-दुखियों का अरण्य रोदन<br />सुनने की फुर्सत किसी के पास नहीं।<br />कलियुग की रामायण में<br />उत्तरकाण्ड लिखे जाने का इन्तजार<br />कर रहे हैं लोग,<br /><span class="">सम्प्रति, राम नाम सत्य है, </span><br />यह मैं कैसे कहूं !<br />मगर एक सच और है भाई तुलसीदास!<br /><span class="">जिन्दगी रामायण नहीं, महाभारत है।</span><br />कौरव जब सुई बराबर जगह देने को<br />राजी न हों<br />तो युद्ध के सिवा और क्या रास्ता<br />रह जाता है ?<br />प्रजा जब रोटी मांगती हो<br />और सम्राट लुई केक खाने की तजवीज<br />पेश करे<br />तो इतिहास का पहिया किधर जायेगा ?<br />डंका पीटा जा रहा है,<br />भीड़ जुटती जा रही है,<br />चिनगारियां चुनी जा रही हैं,<br />पोस्टर लिखे जा रहे हैं,<br />और तूतियां नक्कारखाने पर<br />हमले की हिम्मत जुटा रही हैं।<br /><span class=""></span><br /><span class=""></span><br /><span class=""></span><br /><span class=""></span>शिक्षा : पीएच. डी. तक।http://www.blogger.com/profile/14437295166160584135noreply@blogger.com2tag:blogger.com,1999:blog-9119891328043019703.post-44780877694595166892009-11-26T13:54:00.007+05:302009-11-26T23:34:40.351+05:30फर्कसागर तट पर<br />एक अंजुरी खारा जल पी कर<br />नहीं दी जा सकती सागर की परिभाषा,<br />चूंकि वह सिर्फ जलागार नहीं होता।<br />इसी तरह जिन्दगी कोई समंदर नहीं,<br />गोताखोरी का नाम है<br />और आदमी गंगोत्री का उत्स नहीं,<br />अगम समुद्र होता है।<br />धरती कांटे उगाती है।<br />तेजाब आकाश से नहीं बरसता।<br />हरियाली में ही पलती है विष-बेल।<br />लेकिन मिट्टी को कोसने से पहले<br />अच्छी तरह सोच लो।<br />फूल कहां खिलते हैं ?<br />मधु कहां मिलता है ?<br />चन्दन में सांप लिपटे हों<br />तो जंगल गुनहगार कैसे हुए ?<br />मशीनें लाखों मीटर कपड़े बुनती हैं,<br />मगर यह आदमी पर निर्भर है<br />कि वह सूतों के चक्रव्यूह का क्या करेगा !<br />मशीनें साड़ी और फंदे में<br />फर्क नहीं करतीं,<br />यह तमीज<br />सिर्फ आदमी कर सकता है।शिक्षा : पीएच. डी. तक।http://www.blogger.com/profile/14437295166160584135noreply@blogger.com1tag:blogger.com,1999:blog-9119891328043019703.post-13943758378290658422009-11-25T18:38:00.011+05:302009-11-26T23:35:24.810+05:30शर्तएक सच और हजार झूठ की बैसाखियों पर<br />सियार की तिकड़म<br />और गदहे के धैर्य के साथ<br />शायद बना जा सकता हो राजपुरूष,<br />आदमी कैसे बना जा सकता है।<br /><span style="font-size:+0;">पुस्तकालयों को</span> दीमक की तरह चाट कर<br />पीठ पर लाद कर उपाधियों का गट्ठर<br />तुम पाल सकते हो दंभ,<br />थोड़ा कम या बेशी काली कमाई से<br />बन जा सकते हो नगर सेठ।<br />सिफारिश या मिहनत के बूते<br />आला अफसर तक हुआ जा सकता है।<br />किंचित ज्ञान और सिंचित प्रतिभा जोड़ कर<br />सांचे में ढल सकते हैं<br />अभियंता, चिकित्सक, वकील या कलमकार।<br />तब भी एक अहम काम बचा रह जाता है<br />कि आदमी गढ़ने का नुस्खा क्या हो।<br />साथी, आपसी सरोकार तय करते हैं<br />हमारी तहजीब का मिजाज,<br />कि सीढ़ी-दर-सीढ़ी मिली हैसियत से<br />बड़ी है बूंद-बूंद संचित संचेतना,<br />ताकि ज्ञान, शक्ति और ऊर्जा,<br />धन और चातुरी<br />हिंसक गैंडे की खाल<br />या धूर्त लोमड़ी की चाल न बन जायें<br />चूंकि आदमी होने की एक ही शर्त है<br />कि हम दूसरों के दुख में कितने शरीक हैं।शिक्षा : पीएच. डी. तक।http://www.blogger.com/profile/14437295166160584135noreply@blogger.com2tag:blogger.com,1999:blog-9119891328043019703.post-48107416265651308672009-10-18T19:32:00.001+05:302009-11-26T23:35:57.382+05:30झूठा सचझूठ के नगाड़ों पर<br />सच के बारे में हजारों बयान<br />रोज आ रहे हैं खबरों में।<br />हमारी पीढ़ी की उम्र<br />इसी तरह ठगे जाने में<br />गुजरी है।<br />प्रायोजित सभाओं में<br />इतिहास का झुलसा चेहरा<br />सामने आया है बार-बार<br /><br />लगातार ढलान पर फिसलते हुए<br />जितनी बच पायी हैं<br />सदी की लहूलुहान आस्थाएं,<br />चोटिल होती मिसालों के बुत<br />जितना भर साबुत बच गये हैं,<br />अमानत की ये बहुतेरी बानगियां<br />अब किसके हवाले हों,<br />यह सोचो।<br /><br />सदी की सूखती टहनियों से<br />झरते रहे हैं<br />सब्ज बागों के जो मौसमी फूल,<br />उन्हें पवित्र किताबों में रख लो।<br />दसों दिशाओं में<br />जब-जब बहेगी पछुआ हवा,<br />चोट खाये पंजरों का दर्द<br />फिर-फिर जागेगा<br />और काहिल पुरखों से<br />अपना हिसाब मांगेगा।शिक्षा : पीएच. डी. तक।http://www.blogger.com/profile/14437295166160584135noreply@blogger.com3tag:blogger.com,1999:blog-9119891328043019703.post-73968457297844223672009-10-15T19:19:00.005+05:302009-10-15T19:30:12.994+05:30सबसे हरा भरा-दिन<a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEjf_2Bl_zmnIbYQ0W2EfLvKIcERcJmHjE_B_kxjl9B5h5H7IIJcOAiRfbfzxsmOLpbdM2i014dc-99MLgDQcLdW61vaT8adU3G8VMPSg83MJU_B2QaRoHf47dNEYBpckxqOuMMx9gJWnGbW/s1600-h/trees.jpg"><img style="MARGIN: 0px 0px 10px 10px; WIDTH: 238px; FLOAT: right; HEIGHT: 320px; CURSOR: hand" id="BLOGGER_PHOTO_ID_5392825819013644466" border="0" alt="" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEjf_2Bl_zmnIbYQ0W2EfLvKIcERcJmHjE_B_kxjl9B5h5H7IIJcOAiRfbfzxsmOLpbdM2i014dc-99MLgDQcLdW61vaT8adU3G8VMPSg83MJU_B2QaRoHf47dNEYBpckxqOuMMx9gJWnGbW/s320/trees.jpg" /></a>जब कोई ठूंठ बंजर दिन<br /><div>घाव की तरह टीसता है, </div><div>तब उसकी टभक </div><div>ऐसे तमाम दिनों की यादें </div><div>ताज़ा कर देती है। </div><div></div><br /><div>फिर दिनों की कतार जुड़ती जाती है, </div><div>उनकी सीढ़ियां बनने लगती हैं, </div><div>ऊसर पठार पर जंगल उग जाते हैं </div><div>और जिंदगी का हिसाब </div><div>उम्र के सफर में </div><div>बेहिसाब मुश्किल हो जाता है। </div><div></div><br /><div>सबसे हरा-भरा दिन वह होता है </div><div>जब दर्द घाव का मुंह खोलने लगता है </div><div>और घायल आदमी </div><div>जुल्मों के खिलाफ बोलने लगता है।</div>शिक्षा : पीएच. डी. तक।http://www.blogger.com/profile/14437295166160584135noreply@blogger.com6tag:blogger.com,1999:blog-9119891328043019703.post-22204664966841956292009-07-24T10:43:00.004+05:302009-11-26T23:37:58.533+05:30संभावनादूरभाष पर<br />तुम्हारा स्वर छलकता है<br />कि मद्धिम मछुआ गीतों की धुंध में<br />नन्ही डोंगियां तिरने लगती हैं।<br />धड़कनों के पार्श्व संगीत में<br />किसी लचकती लय की तरह<br />एकदम निकट चली आती हो तुम<br />कि जैसे पुरी की सागर-संध्या में<br />लहराती है क्षितिज-रेखा।<br /><br />मैं नहीं जानता,<br />किस दिन रेगिस्तान बन जायेगी<br />तुम्हारे कहकहों की हरियाली,<br />कब चिनक जायेगी<br />कांच की चूड़ियों-सी खनकती हंसी।<br />किस क्षण सिमट जायेगी<br />उन्मुक्त संवादों की यह रंग-लड़ी।<br /><br />सहज संभव है<br />कि एक दिन अकस्मात रुक जाये<br />यह सैलानी सिलसिला,<br />खंडित हो जाये<br />जादुई अनुभवों का जलसा-घर।<br />फिर सूख चुकी नदी की तलहटी में<br />निष्प्रयोजन बिछी हुई रेत<br />मछली और नदी की समाधि-कथा को<br />याद किया करेगी।शिक्षा : पीएच. डी. तक।http://www.blogger.com/profile/14437295166160584135noreply@blogger.com6tag:blogger.com,1999:blog-9119891328043019703.post-68455012807247091092009-07-24T10:23:00.005+05:302009-11-26T23:39:27.072+05:30पिरामिडसच है<br />कि एक दिन<br />नहीं रहूंगा मैं।<br />शायद साबुत रह जायें<br />ये चंद कविताएं,<br />शायद बचे रह सकें<br />मेरे कुछ शब्द<br />और यात्रा के अभिलेख संजोती<br />यह डायरी।<br />प्यास के रेगिस्तानी सफर में<br />जिजीविषा की पुकार<br />वहं तुम्हें टेरती मिलेगी।<br />आखिरश कविता<br />इससे ज्यादा<br />कर क्या कर सकती है<br />किसी वजूद की हिफाजत...शिक्षा : पीएच. डी. तक।http://www.blogger.com/profile/14437295166160584135noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-9119891328043019703.post-4647851862518278562009-07-17T11:02:00.016+05:302009-07-17T11:38:16.604+05:30पुनर्जन्म-2बारबार लगता है<br />कि अब नहीं फूटेंगी कोंपलें,<br />कि निपट काठ बन चुका हूं मैं।<br /><br />बहुत बार लगता है<br />कि अब कोई घोंसला नहीं बन सकता<br />यहां-<br />इस चरमरा चुकी टहनी पर,<br />कि झुलस चुका है<br />अनुभ्ावों का सघन-मगन जंगल।<br /><br />कई बार लगता है<br />कि मेरे मिजाज पर तारी<br />बेमियादी कर्फयू<br />कभी खतम नहीं होने वाला,<br />कि कोई न कोई खौफ<br />मुझ पर खुफिया नजर रखा करेगा<br />अमन-चैन को थर्राता हुआ।<br /><br />हर बार<br />औरत और इमारतों की दुनिया में<br />कुछ भी नहीं चुन पाता मैं<br />अपने लिए,<br />यश-अपयश के धर्म-कांटे पर<br />तुलता हुआ।<br /><br />अनेक बार<br />उलझनों के चक्रव्यूह से बाहर आकर<br />बच्चों के लिए<br />टॉफियां खरीदने का खयाल<br />मुल्तवी हो जाता है मुझसे,<br />समूचा बाजार-प्रांगण<br />उलझे मन और तलाशती आंखों से<br />मुआयना करते<br />मैं गुजार देता हूं दिन।<br /><br />फिर अचानक विस्िमत हो जाता हूं<br />जब पाता हूं<br />कि सूखे काठ में अंकुर फूट रहे हैं,<br />मुर्दा पेड़ के तनों पर<br />पत्तों के रोमांचल स्पर्श<br />उतर रहे हैं,<br />और मैं अपनी बनायी जेल से उबर कर<br />ताजा दूब पर<br />चल-फिर सकता हूं।शिक्षा : पीएच. डी. तक।http://www.blogger.com/profile/14437295166160584135noreply@blogger.com3tag:blogger.com,1999:blog-9119891328043019703.post-6776495649111647772009-07-15T17:38:00.001+05:302009-07-16T23:20:35.914+05:30पुनर्जन्मबारबार जन्म लेता हूं<br />ज्वाला के अग्िन-कुंड से,<br />अपनी ही चिता की आग में<br />तप कर मैं।<br /><br />जिन्दगी गाती है सोहर,<br />जैसे घूरे पर उगता गुलमोहर।<br />पवर्ताकार बादलों के धुआं-जाल में<br />आकाश जब स्याह पड़ जाता है,<br />जहरीले तूफानों के भंवर में<br />पस्त हो उठती है जब हवा,<br />तब गरजते शोर से थर्राता है<br />हरा-भरा जंगल।<br /><br />घाटियों में गश्त लगाती कौंध से<br />पगडंडियां आईना बन जाती हैं।<br />जब धुआंती घुटन से भर जाता है<br />मेरा कमरा,<br />उमसाये दरीचे दम तोड़ने लगते हैं,<br />नींद के बिस्तरे पर<br />कीड़े-मकोड़ों की पलटन<br />कवायद करती होती है,<br />मूर्छित अंधेरों में<br />किसी ग्लैशियर का ठंडा एहसास<br />बिछा होता है आसपास।<br /><br />कभी-कभी अचानक<br />बन्द दरीचे खुल जाते हैं<br />और सूरज मुक्ित सैनिक की तरह<br />सहसा निकट चला आता है।<br />युयुत्सु जिजीविषा<br />मेरी बेड़ियां तोड़ती है,<br />हथकड़ियां खोलती है।शिक्षा : पीएच. डी. तक।http://www.blogger.com/profile/14437295166160584135noreply@blogger.com3tag:blogger.com,1999:blog-9119891328043019703.post-30736556717015753982009-07-14T20:30:00.003+05:302009-07-14T21:11:29.452+05:30शब्दशब्द<br />कभी खाली हाथ नहीं लौटाते।<br />तुम कहो प्यार<br />और एक तरल रेशमी स्पर्श<br />तुम्हें छूने लगेगा।<br />तुम कहो करुणा<br />और एक अदेखी छतरी<br />तुम्हारे संतापों पर<br />छतनार दरख्त बन तन जायेगी।<br />तुम कहो चन्द्रमा<br /><span style="font-family:verdana;">और एक दूधपगी रोटी</span><br /><span style="font-family:verdana;">तुम्हें परोसी मिलेगी।</span><br /><span style="font-family:verdana;">तुम कहो सूरज</span><br /><span style="font-family:verdana;">और एक भरापुरा कार्य दिवस</span><br /><span style="font-family:verdana;">तुम्हें सुलभ होगा।</span><br /><span style="font-family:verdana;">शब्द</span><br /><span style="font-family:verdana;">किसी की फरियाद</span><br /><span style="font-family:verdana;">अनसुनी नहीं करते।</span><br /><span style="font-family:verdana;">गहरी से गहरी घाटियों में</span><br /><span style="font-family:verdana;">आवाज दो,</span><br /><span style="font-family:verdana;">तुम्हारे शब्द तुम्हारे पास</span><br /><span style="font-family:verdana;">फिर लौट आयेंगे, </span><br /><span style="font-family:verdana;">लौट-लौट आयेंगे।</span>शिक्षा : पीएच. डी. तक।http://www.blogger.com/profile/14437295166160584135noreply@blogger.com5tag:blogger.com,1999:blog-9119891328043019703.post-45191001624117090362009-06-11T13:07:00.002+05:302009-06-11T13:15:26.867+05:30जब से शहर बड़े हुए हैंजब से शहर बड़े हुए हैं,<br />आदमी की तकलीफें बड़ी हुई हैं,<br />कामगारों के जुलूस बड़े हुए हैं,<br />मजदूरों के मांग-पत्र बड़े हुए हैं,<br />लाठियों की किस्में बड़ी हुई हैं,<br />घायल बदन में दर्द बड़ा हुआ है।<br /><br />जब से शहर बड़े हुए हैं,<br />एक खतरे का एलार्म सुन रहा हूं मैं<br />कि तमाम जेलों, मिलों, दफ्तरों,<br />काली बस्तियों और सफेद गद्दियों से<br />उठकर कुछ लोग<br />हरियाली की ओर गये हैं।<br />उनके ढोर-डंगर भी जाते दिखे,<br />लाव-लश्कर, माल-असबाब सभी गये।<br /><br />मगर खच्चरों की पीठ पर<br />कोई पुस्तकालय नहीं गया।<br />गदहों पर<br />अस्पताल की दवाइयां नहीं लादी गयीं।<br />घोड़ों पर खिलौने, फूल, वाद्य यंत्र<br />या मिठाइयां नहीं थीं,<br />बैलों पर कृषि यंत्र,<br />खाद की बोरियां या कपड़े नहीं लदे।<br /><br />जी हां, कई छकड़ों पर लदे<br />सामानों की फेहरिस्त मैं बता सकता हूं,<br />मोटी महाजनी बहियां थीं,<br />हथियार समेत खाकी वर्दियां थीं,<br />दारू के पीपे थे, और<br />उपभोक्ता बाजार के कबाड़ से लैस<br />तरह-तरह के खुराफाती लोग।<br />दोस्तो,<br />जब से शहर बड़े हुए हैं,<br />कतारें लंबी हुई हैं,<br />जीभ दुगुनी हुई है,<br />भूख चौगुनी हुई है,<br />वहशियत सौगुनी हुई है<br />और बनियेपन का कोई हिसाब नहीं।शिक्षा : पीएच. डी. तक।http://www.blogger.com/profile/14437295166160584135noreply@blogger.com5tag:blogger.com,1999:blog-9119891328043019703.post-40350249608566933812009-06-06T09:49:00.004+05:302009-06-06T10:07:29.281+05:30एक पिता का पत्रवत्स!<br />इस भग्न कृपाण और खंडित ढाल से<br />यह युद्ध मुझसे खींचा नहीं जाता।<br />मेरे पिता ने मुझे सौंपा था जो शस्त्रागार,<br />वहां से सिर्फ आस्था का कवच चुनकर<br />मैं इस संग्राम भूमि में आ गया था।<br />मुझे शेष सारे हथियार<br />जीवन की दुर्गम वनस्थली से मिले हैं।<br />यह तुम्हें बतला दूं<br />कि जिन मार्गों से गुजर कर<br />हम यहां तक चले आये हैं,<br />अब उन पर बटमारों का कब्जा है।<br /><br />मैं फिलवक्त हारे हुए युद्ध का<br />घायल सैनिक हूं<br />और संघर्ष के मैदान के सिवा<br />कोई वसीयत तुम्हें लिख नहीं सकता<br />किंतु यह याद रखना वत्स!<br />कि इतिहास की कोई पुस्तक<br />तुम्हें यह नहीं बतलायेगी<br />कि किस तरह कोई महान देश<br />अंधेरी सुरंगों में उतर जाता है<br />और राजसत्ता मक्कार जनसेवकों का<br />पांवपोश बन जाती है।<br /><br />एक सुबह सफेद बगुलों को<br />अपने सीमांतों से बाहर<br />सात समंदर पार धकिया कर<br />तिरंगे आकाश के नीचे<br />हमने राष्ट्रधुन बजायी थी,<br />उस महोत्सव में<br />जिन्होंने शपथग्रहण का मंत्र पढ़ा था,<br />उनके लिए यह तंत्र कच्चा घड़ा था।<br />एक जनद्रोही जमात को<br />देश की नकेल थमा कर<br />जो कुछ किया था वक्त ने,<br />वह मदारियों की अदला-बदली थी<br />शायद!<br />अन्यथा<br />पैंतीस करोड़ नरों की नरशक्ति<br />सत्तर करोड़ वानरों में<br />कैसे बदल गयी!शिक्षा : पीएच. डी. तक।http://www.blogger.com/profile/14437295166160584135noreply@blogger.com2tag:blogger.com,1999:blog-9119891328043019703.post-72572372561518478252009-06-03T23:33:00.007+05:302009-06-21T23:27:34.539+05:30सार्थक कोश की खोज मेंमुझे पता है,<br />तुम्हें चाहिए<br />सूक्तियों में समां बांधने वाला शब्द-शिल्प,<br />वाक् चातुरी का बिकाऊ करिश्मा<br />और भाषा की दिलफरेब बाजीगरी।<br /><br />मुझे खेद है कि मैं तुम्हें निराश करूंगा।<br />मैंने डायरी के नीले पन्नों पर दर्ज<br />मौसमी गीत फाड़ डाले हैं,<br />पिता के पुस्तकागार से निकाल कर<br />उमरखैयाम को सूखे कुएं के पास<br />रख छोड़ा है।<br /><br />फिलहाल मुझे ऋतु संगीत नहीं चाहिए।<br />ना ही देखना चाहूंगा मोरपंखी पंडाल,<br />हाथी दांत की पच्चीकारी निरखते<br />उकता गया हूं बहुत।<br /><br />तर्क-कुतर्क के दिशाहीन पांडित्य से<br />मैं विरत हो चुका।<br />किंतु पड़ोस से उठती कराहों से<br />चिंतित हूं अवश्य।<br /><br />मित्रो!<br />खोखली राष्ट्र वंदना में<br />शब्दकोश गढ़ने की मुझे फुर्सत नहीं।<br />भाड़े पर थिरकने के लिए<br />मेरी कविता सुलभ नहीं है।<br />एक युद्ध मुझे पुकार रहा है,<br />एक जुलूस का मुझे इंतजार है।शिक्षा : पीएच. डी. तक।http://www.blogger.com/profile/14437295166160584135noreply@blogger.com19tag:blogger.com,1999:blog-9119891328043019703.post-42335702823266529322009-06-03T15:10:00.008+05:302010-03-25T01:43:01.298+05:30विद्याभूषण की आवाज में एक उम्दा ख्याल<script language="JavaScript" src="http://sagarnahar.googlepages.com/audio-player.js"></script><div style="text-align: justify;"><span>पापा</span> <span>की</span> <span>कविता</span> '<span>एक</span> <span>उम्दा</span> <span>ख्याल</span>' <span>उनकी</span> <span>ही</span> <span>आवाज</span> <span>में</span> <span>आपके</span> <span>लिए</span> <span>इस</span> <span>ब्लॉग</span> <span>पर।</span> <span>कविता</span> <span>से</span> <span>पहले</span> <span>संक्षिप्त</span> <span>टिप्पणी</span> <a href="http://sushilankan.blogspot.com/" target="_blank">सुशील कुमार अंकन</a> <span>की</span> <span>आवाज</span> <span>में</span> <span>है।</span><br /></div><div style="text-align: right;"><a href="http://anuraganveshi.blogspot.com/" target="_blank">-अनुराग अन्वेषी</a><br /></div><br /><br /><script language="JavaScript" src="http://sites.google.com/site/anuraganveshi/Home/audio-player.js"></script><br /><object data="http://sites.google.com/site/anuraganveshi/Home/player.swf" id="audioplayer1" type="application/x-shockwave-flash" width="290" height="24"> <param name="movie" 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src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEjcvTxT7ztozEhpl-GxdS7o4KZ1fc7HSSXeaVIO7TrgineIPoY9nR7xlyjz2R_pnOa_i0D3-sNs1Qf8CiBrGdTQT0xCE-d8gfbeqYOzb5-u7vQ__aRl6cD3rUWV7xdhzhw13Xdiiu8C2J4d/s320/poem.jpg" border="0" /></a>कविता<br /><div>एलार्म घड़ी नहीं है दोस्तो </div><div>जिसे सिरहाने रखकर तुम सो जाओ </div><div>और वह नियत वक्त पर </div><div>तुम्हें जगाया करे </div><div>तुम उसे संतरी मीनार पर रख दो </div><div>तो वह दूरबीन का काम देती रहेगी </div><div></div><br /><div>वह सरहद की मुश्किल चौकियों तक </div><div>पहुंच जाती है रडार की तरह </div><div>तो भी मोतियाबिंद के शर्तिया इलाज </div><div>का दावा नहीं उसका। </div><div>वह बहरे कानों की दवा </div><div>नहीं बन सकती कभी। </div><div>हां, किसी चोट खायी जगह पर </div><div>दर्दनाशक लोशन की राहत </div><div>दे सकती है कभी-कभी, </div><div>और कभी सायरन की चीख़ बन </div><div>तुम्हें ख़तरों से सावधान कर सकती है </div><div></div><br /><div>कविता उसर खेतों के लिए </div><div>हल का फाल बन सकती है, </div><div>फरिश्ते के घर जाने की खातिर </div><div>नंगे पांवों के लिए </div><div>जूते की नाल बन सकती है </div><div>समस्याओं के बीहड़ जंगल में </div><div>एक बाग़ी संताल बन सकती है </div><div>और किसी मुसीबत की घड़ी में भी</div><div>अगर तुम आदमी बने रहना चाहो </div><div>तो एक उम्दा ख्याल बन सकती है।</div>शिक्षा : पीएच. डी. तक।http://www.blogger.com/profile/14437295166160584135noreply@blogger.com10