साठ ऋतुचक्रों को समर्पित इस यात्रा में
रम्य घाटियों से गुजरते हुए
हर मौसम में आठों पहर
सिसिफस की शापकथा का साक्षी रहा मैं।
अनगिनत बार शिखर छूने का भरम
और ढलान पर सरकते हुए
धरातल पर वापसी का करम।
किसी क्षण मुझे यह पता नहीं चला
कि त्रिशंकु को नियति ने क्यों छला !
मैं तंद्रिल कविताओं की गोष्ठी में
आता-जाता रहा कई बार,
मधुमती भूमिका से लेकर
बले-बले की धुन में चल रहे
मदहोश महफिल में
तुमुल कोरस का श्रोता
रहा बरसों तक।
पता नहीं,
कितना सही है यह सहज ज्ञान
कि थिरकती है देह, और हुलसता है मन,
इससे अधिक कुछ नहीं है जीवन।
कोलाहल में आत्मा सो जाती है अक्सर
और जागती है कभी-कभी
अनहद भोर की चुप्पी में।
राग-विराग की सेज पर
करवटें बदलती आयी हैं सदियां,
श्रद्धा और इड़ा की लहरीली चोटियों के बीच
प्रलय की उत्ताल तरंगों पर
नौका विहार का पहला यात्री था मनु।
आज भी देह का दावानल तपता है
मानसरोवर की घाटी में,
उस जल प्लावन का प्रतिपल साक्षी है
जो यायावर-कवि
उसे विद्याभूषण कहते हैं।
आदिवासी कलम की धार और हिन्दी संसार
14 years ago
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