सात सुरों की धुन पढ़ें अपनी लिपि में, SAAT SURON KI DHU Read in your own script,

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Saturday, December 19, 2009

साठ साल के धूपछांही रंग-3

साठ ऋतुचक्रों को समर्पि‍त इस यात्रा में
रम्‍य घाटि‍यों से गुजरते हुए
हर मौसम में आठों पहर
सि‍सि‍फस की शापकथा का साक्षी रहा मैं।
अनगि‍नत बार शि‍खर छूने का भरम
और ढलान पर सरकते हुए
धरातल पर वापसी का करम।
कि‍सी क्षण मुझे यह पता नहीं चला
कि‍ त्रि‍शंकु को नि‍यति‍ ने क्‍यों छला !
मैं तंद्रि‍ल कवि‍ताओं की गोष्‍ठी में
आता-जाता रहा कई बार,
मधुमती भूमि‍का से लेकर
बले-बले की धुन में चल रहे
मदहोश महफि‍ल में
तुमुल कोरस का श्रोता
रहा बरसों तक।

पता नहीं,
कि‍तना सही है यह सहज ज्ञान
कि‍ थि‍रकती है देह, और हुलसता है मन,
इससे अधि‍क कुछ नहीं है जीवन।
कोलाहल में आत्‍मा सो जाती है अक्‍सर
और जागती है कभी-कभी
अनहद भोर की चुप्‍पी में।

राग-वि‍राग की सेज पर
करवटें बदलती आयी हैं सदि‍यां,
श्रद्धा और इड़ा की लहरीली चोटि‍यों के बीच
प्रलय की उत्‍ताल तरंगों पर
नौका वि‍हार का पहला यात्री था मनु।
आज भी देह का दावानल तपता है
मानसरोवर की घाटी में,
उस जल प्‍लावन का प्रति‍पल साक्षी है
जो यायावर‍-कवि‍
उसे वि‍‍द्याभूष‍ण कहते हैं।

Friday, December 18, 2009

साठ साल के धूपछांही रंग-2

इस सुरमई मौसम में
मुश्किलों की बहंगी ढोती जि‍न्दगी
सि‍हरती है।
अतृप्त स्वाद, रेशमी स्पर्श,
मनहर दृश्य, गुलाबी गंध
और घटाटोपी कुहासे में
अनगि‍नत ऐन्द्रिक भूचाल
सदाबहार कामनाओं को
रसभरे इशारे करते हैं।

जि‍स प्रेमग्रंथ का साठवां संस्करण
प्रस्तुत है मेरे सामने,
उसमें अनगि‍नत अनलि‍खी कवि‍ताएं
ओस-अणुओं में दर्ज हैं।
कुछेक लि‍खी गयी थीं गुलाबी कि‍ताबों के
रूपहले पन्नों पर।
कई अनछपी डायरि‍यां
संस्मरणों में ढल गयी हैं,
और तमाम गीली स्मृ‍‍ति‍यां
उच्छवासों में वि‍सर्जि‍त हो चुकी हैं।

ओस में नहायी गुलाबों की घाटी
भली लगती है मुझे आज भी,
मगर फूल तोड़ना सख्त मना है यहां।
मि‍त्रो, वर्जित फलों की सूची लंबी है,
और सभाशास्त्र में उनके स्वाद
सर्वथा नि‍षि‍द्ध घोषि‍त हैं।
आदम और हव्वा की पीढ़ि‍यां
एक सेब चखने की सजा
भुगतती रही हैं बारबार।
लेकि‍न स्मृति‍‍यां नि‍र्बंध शकुंतलाएं हैं,
उनका अभि‍ज्ञान रचता हूं मैं।

Thursday, December 17, 2009

साठ साल के धूपछांही रंग

एक :
कागज पर शब्द लि‍ख कर सोचता हूं
सार्थक हो गया अपना अनकहा,
फागुन से जेठ तक
हर मौसम में भला-बुरा जो भी सहा।

सपनों से अनि‍द्रा तक
चुंबन बरसाती अदाओं के तोरण द्वार
सजा कर
अस्तित्व को घेरते रहे कुछ शब्द-
रंग, गंध, स्पर्श, स्वाद,
सुख, आनन्द, उत्सव, समारोह,
सेहत, जवानी, रूप-सौन्दर्य,
मधु, मदि‍रा, सुधा,
वक्ष, होंठ, कदलि‍वन,
आकाश, क्षि‍ति‍ज, शून्य,
आत्मीय, संगी, मित्र, प्रशंसक,
खरीदार, दरबारी, पुजारी,
पहचान, सम्मान, जय-जयकार,
भ्रान्ति, दि‍वास्वप्न, मि‍थ्या वि‍स्तार।

यह सतरंगी जि‍ल्दोंवाली डायरी
पलट कर देखता हूं जब भी फुरसत में,
अंधे एकान्त का अक्स
खुल जा सि‍म-सि‍म की तर्ज पर
खुलता है यकायक।
अजन्ता-एलोरा के मादक रूपांकन,
कोणार्क के सुगठि‍त प्रस्तर शि‍ल्प
और मांसल चैनलों के वर्जनामुक्त दृश्य
मन के रडार पर अंकि‍त हो जाते हैं
खुद-ब-खुद।

इस दि‍लकश संचि‍का को
बचाये रखने की जुगत नहीं थी अपनी,
फि‍र भी जाने कैसे
मन के नामालूम अंधेरों में
वर्षों छि‍पती रह कर
वह जीवि‍त रही है
और बदराये मौसम में कभी-कभी
लपटीली इबारतों के साथ
मेरे चश्मे पर घि‍रती रही है।

Saturday, December 12, 2009

गर्द-गुबार का इजहार

अरे ओ खजांची,
जब तुम्हारे सामने रखी होंगी
ति‍जोरी की चाबि‍यां,
मगर वहां तक पहुंचने में
असमर्थ होंगे तुम्हारे हाथ,
चेक बुक पड़ा होगा मेज पर
और दस्तखत करते कांपेंगी उगलि‍यां,
जब छप्पन भोग की सजी हुई थाल से
जायकेदार नि‍वाले
नहीं कर सकोगे अपने मुंह के हवाले,
जब कभी प्यास से अकडी़ होगी हलक
मगर गि‍लास नहीं पहुंचेंगे होंठों तक,
तो सोचो कैसा होता होगा
लाचार जि‍न्दगि‍यों का दुख-जाल !

अबे ओ थानेदार,
जब भूख से ऐंठती हों अंति‍ड़यां
और घर में आधी रोटी भी
मयस्सर नहीं हो,
न फ्रि‍ज, न लॉकर,
न दराज, न ति‍जोरी,
न चेक बुक, न नगदी,
और चूल्हा हो ठंढा, देगची हो खाली,
तो कैसे बन जाता है
कमजोर आदमी मवाली !

अजी ओ जि‍लाधीश,
कब तक कतार में झुके रहेंगे
ये शीश ?
बकरे की अम्मा कब तक मनायेगी खैर,
जल में रह कर कैसे नि‍भे मगर से बैर !
जब भारी जुल्म-सि‍तम तारी हो,
सि‍र्फ ‍सि‍फर जीने की लाचारी हो,
जि‍न्दा लाशों का हुजूम हो
गलि‍यों में, सड़कों पर,
और तमाम रास्ते हों बंद,
तब कहां जायेगी यह दुनि‍या
अमनपसन्द ?

जरा सुनो सरताज,
यह आज देता है कि‍स कल का आगाज ?
क्यों मांगने वाले हाथ
मजबूरन बंदूक थाम लें ?
क्यों‍ मेहनतकश लोग
बेइंतहा गुरबत का इनाम लें ?
बंधुआ अवाम को जि‍ल्लत की जेल से
नि‍कलने के लि‍ए,
देश और दुनि‍या को बदलने के लि‍ए
क्या तजवीज है तुम्हारे पास ?
ठोस जमीन पर चलो,
मत नापो आकाश।

Tuesday, December 8, 2009

अथ से इति‍ तक

भाई तुलसीदास!
हर युग की होती है अपनी व्‍याधि‍ व्‍यथा।
कहो, कहां से शुरु करूं आज की कथा ?
मौजूदा प्रसंग लंका कांड में अंटक रहा है।
लक्ष्‍मण की मूर्च्‍छा टूट नहीं रही,
राम का पता नहीं,
युद्ध घमासान है,
मगर यहां जो भी प्रबुद्ध या महान हैं,
तटस्‍थ हैं,
चतुर सुजान हैं।
जहर के समन्‍दर में
हरि‍याली के बचेखुचे द्वीपों पर
प्रदूषण की बरसात हो रही है।
आग का दरि‍या
कबाड़ के पहाड़ के नीचे
सदि‍यों से गर्म हो रहा है।
भाई तुलसीदास!
आज पढ़ना एक शगल है,
लि‍खना कारोबार है,
अचरज की बात यह है
कि‍ ‍जि‍सके लि‍ए कि‍ताबें जरूरी हैं,
उसे पढ़ना नहीं सि‍खाया गया,
और जि‍न्‍हें पढ़ना आता है,
उन्‍हें जुन्‍म से लड़ना नहीं आता।
इसलि‍ए भाषण एक कला है,
और जीवन एक शैली है।
जो भी यहां ग्रहरत्‍नों के पारखी हैं,
वे सब चांदी के चक्‍के के सारथी हैं।
वाकई लाचारी है
कि‍ प्रजा को चुनने के लि‍ए हासि‍ल हैं
जो मताधि‍कार,
सुस्‍थापि‍त है उन पर
राजपुरूषों का एकाधि‍कार।
मतपेटि‍यों में
वि‍कल्‍प के दरीचे जहां खुलते हैं,
वहां से राजपथ साफ नजर आता है,
और मुझे वह बस्‍ती याद आने लगती है
जो कभी वहां हुआ करती थी-
चूंकि‍ आबादी का वह काफि‍ला
अपनी मुश्‍कि‍लों का गद्ठर ढोता हुआ
चला गया है यहां से परदेस -
सायरन की आवाज पर
ईंट भद्टों की ‍चि‍म‍नि‍यां सुलगाने,
खेतों-बगानों में दि‍हाड़ी कमाने
या घरों-होटलों में खट कर रोटी जुटाने।
भाई तुलसीदास !
जब तक राजमहलों के बाहर दास बस्‍ि‍तयों में
रोशनी की भारी कि‍ल्‍लत है,
और श्रेष्‍ठि‍जनों की अद्टालि‍काओं के चारोंओर
चकाचौंध का मेला है,
जब तक बाली सुग्रीव के वंशजों को
बंधुआ मजदूर बनाये रखता है,
वि‍भीषण सही पार्टी की तलाश में
बारबार करवटें बदल रहा है,
और लंका के प्रहरी अपनी धुन में हैं,
तब तक दीन-दु‍खि‍यों का अरण्‍य रोदन
सुनने की फुर्सत कि‍सी के पास नहीं।
कलि‍युग की रामायण में
उत्‍तरकाण्‍ड लि‍खे जाने का इन्‍तजार
कर रहे हैं लोग,
सम्‍प्रति‍, राम नाम सत्‍य है,
यह मैं कैसे कहूं !
मगर एक सच और है भाई तुलसीदास!
जि‍न्‍दगी रामायण नहीं, महाभारत है।
कौरव जब सुई बराबर जगह देने को
राजी न हों
तो युद्ध के सि‍वा और क्‍या रास्‍ता
रह जाता है ?
प्रजा जब रोटी मांगती हो
और सम्राट लुई केक खाने की तजवीज
पेश करे
तो इति‍हास का पहि‍या कि‍धर जायेगा ?
डंका पीटा जा रहा है,
भीड़ जुटती जा रही है,
चि‍नगारि‍यां चुनी जा रही हैं,
पोस्‍टर लि‍खे जा रहे हैं,
और तूति‍यां नक्‍कारखाने पर
हमले की हि‍म्‍मत जुटा रही हैं।



Thursday, November 26, 2009

फर्क

सागर तट पर
एक अंजुरी खारा जल पी कर
नहीं दी जा सकती सागर की परि‍भाषा,
चूंकि‍ वह सि‍र्फ जलागार नहीं होता।
इसी तरह जि‍न्दगी कोई समंदर नहीं,
गोताखोरी का नाम है
और आदमी गंगोत्री का उत्स नहीं,
अगम समुद्र होता है।
धरती कांटे उगाती है।
तेजाब आकाश से नहीं बरसता।
हरि‍याली में ही पलती है वि‍ष-बेल।
लेकि‍न मिट्टी को कोसने से पहले
अच्छी तरह सोच लो।
फूल कहां खि‍लते हैं ?
मधु कहां मि‍लता है ?
चन्दन में सांप लि‍पटे हों
तो जंगल गुनहगार कैसे हुए ?
मशीनें लाखों मीटर कपड़े बुनती हैं,
मगर य‍ह आदमी पर निर्भ‍र है
कि‍ वह सूतों के चक्रव्यूह का क्या करेगा !
मशीनें साड़ी और फंदे में
फर्क नहीं करतीं,
यह तमीज
सि‍र्फ आदमी कर सकता है।

Wednesday, November 25, 2009

शर्त

एक सच और हजार झूठ की बैसाखि‍यों पर
सि‍यार की ति‍कड़म
और गदहे के धैर्य के साथ
शायद बना जा सकता हो राजपुरूष,
आदमी कैसे बना जा सकता है।
पुस्तकालयों को दीमक की तरह चाट कर
पीठ पर लाद कर उपाधि‍यों का गट्ठर
तुम पाल सकते हो दंभ,
थोड़ा कम या बेशी काली कमाई से
बन जा सकते हो नगर सेठ।
सि‍फारि‍श या मि‍हनत के बूते
आला अफसर तक हुआ जा सकता है।
किं‍चि‍त ज्ञान और सिंचि‍‍त प्रति‍भा जोड़ कर
सांचे में ढल सकते हैं
अभि‍यंता, चिकित्सक, वकील या कलमकार।
तब भी एक अहम काम बचा रह जाता है
कि‍ आदमी गढ़ने का नुस्खा क्या हो।
साथी, आपसी सरोकार तय करते हैं
हमारी तहजीब का मि‍जाज,
कि‍ सीढ़ी-दर-सीढ़ी मि‍ली हैसि‍यत से
बड़ी है बूंद-बूंद संचि‍त संचेतना,
ताकि‍ ज्ञान, शक्ति और ऊर्जा,
धन और चातुरी
हिंसक गैंडे की खाल
या धूर्त लोमड़ी की चाल न बन जायें
चूंकि‍ आदमी होने की एक ही शर्त है
कि‍ हम दूसरों के दुख में कि‍तने शरीक हैं।

Sunday, October 18, 2009

झूठा सच

झूठ के नगाड़ों पर
सच के बारे में हजारों बयान
रोज आ रहे हैं खबरों में।
हमारी पीढ़ी की उम्र
इसी तरह ठगे जाने में
गुजरी है।
प्रायोजित सभाओं में
इतिहास का झुलसा चेहरा
सामने आया है बार-बार

लगातार ढलान पर फिसलते हुए
जितनी बच पायी हैं
सदी की लहूलुहान आस्थाएं,
चोटिल होती मिसालों के बुत
जितना भर साबुत बच गये हैं,
अमानत की ये बहुतेरी बानगियां
अब किसके हवाले हों,
यह सोचो।

सदी की सूखती टहनियों से
झरते रहे हैं
सब्ज बागों के जो मौसमी फूल,
उन्हें पवित्र किताबों में रख लो।
दसों दिशाओं में
जब-जब बहेगी पछुआ हवा,
चोट खाये पंजरों का दर्द
फिर-फिर जागेगा
और काहिल पुरखों से
अपना हिसाब मांगेगा।

Thursday, October 15, 2009

सबसे हरा भरा-दिन

जब कोई ठूंठ बंजर दिन
घाव की तरह टीसता है,
तब उसकी टभक
ऐसे तमाम दिनों की यादें
ताज़ा कर देती है।

फिर दिनों की कतार जुड़ती जाती है,
उनकी सीढ़ियां बनने लगती हैं,
ऊसर पठार पर जंगल उग जाते हैं
और जिंदगी का हिसाब
उम्र के सफर में
बेहिसाब मुश्किल हो जाता है।

सबसे हरा-भरा दिन वह होता है
जब दर्द घाव का मुंह खोलने लगता है
और घायल आदमी
जुल्मों के खिलाफ बोलने लगता है।

Friday, July 24, 2009

संभावना

दूरभाष पर
तुम्हारा स्वर छलकता है
कि‍ मद्धि‍म मछुआ गीतों की धुंध में
नन्ही डोंगि‍यां ति‍रने लगती हैं।
धड़कनों के पार्श्व संगीत में
कि‍सी लचकती लय की तरह
एकदम नि‍कट चली आती हो तुम
कि‍ जैसे पुरी की सागर-संध्या में
लहराती है क्षि‍ति‍ज-रेखा।

मैं नहीं जानता,
कि‍स दि‍न रेगि‍स्तान बन जायेगी
तुम्‍हारे कहकहों की हरि‍याली,
कब चि‍नक जायेगी
कांच की चूड़ि‍यों-सी खनकती हंसी।
कि‍स क्षण सि‍मट जायेगी
उन्मुक्त‍ संवादों की यह रंग-लड़ी।

सहज संभव है
कि‍ एक दि‍न अकस्मात रुक जाये
यह सैलानी सि‍लसिला,
खंडि‍त हो जाये
जादुई अनुभवों का जलसा-घर।
फि‍र सूख चुकी नदी की तलहटी में
नि‍ष्प्रयोजन बि‍छी हुई रेत‍
मछली और नदी की समाधि‍-कथा को
याद कि‍या करेगी।‍

पि‍रामि‍ड

सच है
कि‍ एक दि‍न
नहीं रहूंगा मैं।
शायद साबुत रह जायें
ये चंद कवि‍ताएं,
शायद बचे रह सकें
मेरे कुछ शब्द
और यात्रा के अभि‍लेख संजोती
यह डायरी।
प्यास के रेगि‍स्तानी सफर में
जि‍जीवि‍षा की पुकार
वहं तुम्हें टेरती मि‍लेगी।
आखि‍रश कवि‍ता
इससे ज्यादा
कर क्या कर सकती है
कि‍सी वजूद की हि‍फाजत...

Friday, July 17, 2009

पुनर्जन्‍म-2

बारबार लगता है
कि‍ अब नहीं फूटेंगी कोंपलें,
कि‍ नि‍पट काठ बन चुका हूं मैं।

बहुत बार लगता है
कि‍ अब कोई घोंसला नहीं बन सकता
यहां-
इस चरमरा चुकी टहनी पर,
कि‍ झुलस चुका है
अनुभ्‍ावों का सघन-मगन जंगल।

कई बार लगता है
‍कि‍ मेरे मि‍जाज पर तारी
बे‍मि‍यादी कर्फयू
कभी खतम नहीं होने वाला,
कि‍ कोई न कोई खौफ
मुझ पर खुफि‍या नजर रखा करेगा
अमन-चैन को थर्राता हुआ।

हर बार
औरत और इमारतों की दुनि‍या में
कुछ भी नहीं चुन पाता मैं
अपने लि‍ए,
यश-अपयश के धर्म-कांटे पर
तुलता हुआ।

अनेक बार
उलझनों के चक्रव्‍यूह से बाहर आकर
बच्‍चों के लि‍ए
टॉफि‍यां खरीदने का खयाल
मुल्‍तवी हो जाता है मुझसे,
समूचा बाजार-प्रांगण
उलझे मन और तलाशती आंखों से
मुआयना करते
मैं गुजार देता हूं दि‍न।

फि‍र अचानक वि‍स्‍ि‍मत हो जाता हूं
जब पाता हूं
कि‍ सूखे काठ में अंकुर फूट रहे हैं,
मुर्दा पेड़ के तनों पर
पत्‍तों के रोमांचल स्‍पर्श
उतर रहे हैं,
और मैं अपनी बनायी जेल से उबर कर
ताजा दूब पर
चल-फि‍र सकता हूं।

Wednesday, July 15, 2009

पुनर्जन्‍म

बारबार जन्‍म लेता हूं
ज्‍वाला के अग्‍ि‍न-कुंड से,
अपनी ही चिता की आग में
तप कर मैं।

जि‍न्‍दगी गाती है सोहर,
जैसे घूरे पर उगता गुलमोहर।
पवर्ताकार बादलों के धुआं-जाल में
आकाश जब स्‍याह पड़ जाता है,
जहरीले तूफानों के भंवर में
पस्‍त हो उठती है जब हवा,
तब गरजते शोर से थर्राता है
हरा-भरा जंगल।

घाटि‍यों में गश्‍त लगाती कौंध से
पगडंडि‍यां आईना बन जाती हैं।
जब धुआंती घुटन से भर जाता है
मेरा कमरा,
उमसाये दरीचे दम तोड़ने लगते हैं,
नींद के बि‍स्‍तरे पर
कीड़े-मकोड़ों की पलटन
कवायद करती होती है,
मूर्छि‍त अंधेरों में
कि‍सी ग्‍लैशि‍यर का ठंडा एहसास
बि‍छा होता है आसपास।

कभी-कभी अचानक
बन्‍द दरीचे खुल जाते हैं
और सूरज मुक्‍ि‍त सैनि‍क की तरह
सहसा नि‍कट चला आता है।
युयुत्‍सु जि‍जीवि‍षा
मेरी बेड़ि‍यां तोड़ती है,
हथकड़ियां खोलती है।

Tuesday, July 14, 2009

शब्‍द

शब्‍द
कभी खाली हाथ नहीं लौटाते।
तुम कहो प्‍यार‍
और एक तरल रेशमी स्‍पर्श
तुम्‍हें छूने लगेगा।
तुम कहो करुणा
और एक अदेखी छतरी
तुम्‍हारे संतापों पर
छतनार दरख्‍त बन तन जायेगी।
तुम कहो चन्‍द्रमा
और एक दूधपगी रोटी
तुम्‍हें परोसी ‍मि‍लेगी।
तुम कहो सूरज
और एक भरापुरा कार्य ‍दि‍वस
तुम्‍हें सुलभ होगा।
शब्‍द
‍कि‍सी की फ‍‍रि‍याद
अनसुनी नहीं करते।
गहरी से गहरी घाटि‍यों में
आवाज दो,
तुम्‍हारे शब्‍द तुम्‍हारे पास
फि‍र लौट आयेंगे,
लौट-लौट आयेंगे।

Thursday, June 11, 2009

जब से शहर बड़े हुए हैं

जब से शहर बड़े हुए हैं,
आदमी की तकलीफें बड़ी हुई हैं,
कामगारों के जुलूस बड़े हुए हैं,
मजदूरों के मांग-पत्र बड़े हुए हैं,
लाठियों की किस्में बड़ी हुई हैं,
घायल बदन में दर्द बड़ा हुआ है।

जब से शहर बड़े हुए हैं,
एक खतरे का एलार्म सुन रहा हूं मैं
कि तमाम जेलों, मिलों, दफ्तरों,
काली बस्तियों और सफेद गद्दियों से
उठकर कुछ लोग
हरियाली की ओर गये हैं।
उनके ढोर-डंगर भी जाते दिखे,
लाव-लश्कर, माल-असबाब सभी गये।

मगर खच्चरों की पीठ पर
कोई पुस्तकालय नहीं गया।
गदहों पर
अस्पताल की दवाइयां नहीं लादी गयीं।
घोड़ों पर खिलौने, फूल, वाद्य यंत्र
या मिठाइयां नहीं थीं,
बैलों पर कृषि यंत्र,
खाद की बोरियां या कपड़े नहीं लदे।

जी हां, कई छकड़ों पर लदे
सामानों की फेहरिस्त मैं बता सकता हूं,
मोटी महाजनी बहियां थीं,
हथियार समेत खाकी वर्दियां थीं,
दारू के पीपे थे, और
उपभोक्ता बाजार के कबाड़ से लैस
तरह-तरह के खुराफाती लोग।
दोस्तो,
जब से शहर बड़े हुए हैं,
कतारें लंबी हुई हैं,
जीभ दुगुनी हुई है,
भूख चौगुनी हुई है,
वहशियत सौगुनी हुई है
और बनियेपन का कोई हिसाब नहीं।

Saturday, June 6, 2009

एक पिता का पत्र

वत्स!
इस भग्न कृपाण और खंडित ढाल से
यह युद्ध मुझसे खींचा नहीं जाता।
मेरे पिता ने मुझे सौंपा था जो शस्त्रागार,
वहां से सिर्फ आस्था का कवच चुनकर
मैं इस संग्राम भूमि में आ गया था।
मुझे शेष सारे हथियार
जीवन की दुर्गम वनस्थली से मिले हैं।
यह तुम्हें बतला दूं
कि जिन मार्गों से गुजर कर
हम यहां तक चले आये हैं,
अब उन पर बटमारों का कब्जा है।

मैं फिलवक्त हारे हुए युद्ध का
घायल सैनिक हूं
और संघर्ष के मैदान के सिवा
कोई वसीयत तुम्हें लिख नहीं सकता
किंतु यह याद रखना वत्स!
कि इतिहास की कोई पुस्तक
तुम्हें यह नहीं बतलायेगी
कि किस तरह कोई महान देश
अंधेरी सुरंगों में उतर जाता है
और राजसत्ता मक्कार जनसेवकों का
पांवपोश बन जाती है।

एक सुबह सफेद बगुलों को
अपने सीमांतों से बाहर
सात समंदर पार धकिया कर
तिरंगे आकाश के नीचे
हमने राष्ट्रधुन बजायी थी,
उस महोत्सव में
जिन्होंने शपथग्रहण का मंत्र पढ़ा था,
उनके लिए यह तंत्र कच्चा घड़ा था।
एक जनद्रोही जमात को
देश की नकेल थमा कर
जो कुछ किया था वक्त ने,
वह मदारियों की अदला-बदली थी
शायद!
अन्यथा
पैंतीस करोड़ नरों की नरशक्ति
सत्तर करोड़ वानरों में
कैसे बदल गयी!

Wednesday, June 3, 2009

सार्थक कोश की खोज में

मुझे पता है,
तुम्हें चाहिए
सूक्तियों में समां बांधने वाला शब्द-शिल्प,
वाक् चातुरी का बिकाऊ करिश्मा
और भाषा की दिलफरेब बाजीगरी।

मुझे खेद है कि मैं तुम्हें निराश करूंगा।
मैंने डायरी के नीले पन्नों पर दर्ज
मौसमी गीत फाड़ डाले हैं,
पिता के पुस्तकागार से निकाल कर
उमरखैयाम को सूखे कुएं के पास
रख छोड़ा है।

फिलहाल मुझे ऋतु संगीत नहीं चाहिए।
ना ही देखना चाहूंगा मोरपंखी पंडाल,
हाथी दांत की पच्चीकारी निरखते
उकता गया हूं बहुत।

तर्क-कुतर्क के दिशाहीन पांडित्य से
मैं विरत हो चुका।
किंतु पड़ोस से उठती कराहों से
चिंतित हूं अवश्य।

मित्रो!
खोखली राष्ट्र वंदना में
शब्दकोश गढ़ने की मुझे फुर्सत नहीं।
भाड़े पर थिरकने के लिए
मेरी कविता सुलभ नहीं है।
एक युद्ध मुझे पुकार रहा है,
एक जुलूस का मुझे इंतजार है।

विद्याभूषण की आवाज में एक उम्दा ख्याल

पापा की कविता 'एक उम्दा ख्याल' उनकी ही आवाज में आपके लिए इस ब्लॉग पर। कविता से पहले संक्षिप्त टिप्पणी सुशील कुमार अंकन की आवाज में है।



Tuesday, June 2, 2009

एक उम्दा ख्याल

कविता
एलार्म घड़ी नहीं है दोस्तो
जिसे सिरहाने रखकर तुम सो जाओ
और वह नियत वक्त पर
तुम्हें जगाया करे
तुम उसे संतरी मीनार पर रख दो
तो वह दूरबीन का काम देती रहेगी

वह सरहद की मुश्किल चौकियों तक
पहुंच जाती है रडार की तरह
तो भी मोतियाबिंद के शर्तिया इलाज
का दावा नहीं उसका।
वह बहरे कानों की दवा
नहीं बन सकती कभी।
हां, किसी चोट खायी जगह पर
दर्दनाशक लोशन की राहत
दे सकती है कभी-कभी,
और कभी सायरन की चीख़ बन
तुम्हें ख़तरों से सावधान कर सकती है

कविता उसर खेतों के लिए
हल का फाल बन सकती है,
फरिश्ते के घर जाने की खातिर
नंगे पांवों के लिए
जूते की नाल बन सकती है
समस्याओं के बीहड़ जंगल में
एक बाग़ी संताल बन सकती है
और किसी मुसीबत की घड़ी में भी
अगर तुम आदमी बने रहना चाहो
तो एक उम्दा ख्याल बन सकती है।