वाद-विवाद-संवाद गोष्ठियों में
अपनी संकटग्रस्त आस्था के लिए
तर्क-वितर्क-सतर्क बहसों की गिरफत में
घुट कर
जब लौटता हूं घर-
अपने अन्तरकक्ष में,
मैं संतुष्ट आदमी नहीं रह जाता।
कई बेसुरी आवाजें
तमाम सवालों का जायका
कसैला कर देती हैं
कि साठ सालों के सफर में
लाल आंधी की ग्लोबल रफ्तार
सियासी वक्त की दौड़ में
पीछे क्यों रह गयी ?
कई द्वीपों पर बागी परचम
वक्ती तौर पर लहराया जरूर,
मगर तिरंगे देश की धरती
रह गयी प्यासी परती,
इतिहास के रास्तों पर
मील के दीगर पत्थर गड़ते रहे
बारबार-लगातार,
और हमारे साथियों की बैरक में
तकरीरें चलती रहीं हांफती चाल।
फिलहाल जम्हूरी दस्तावेजों के कातिब
पूछ रहे यह बेमुरब्बत सवाल
कि उस सूर्ख परचम को काट-छांट कर
किसने बनाये बीस रूमाल ?
उस सुलगती अंगीठी को जल समाधि
कहां-कहां मिली ?
कि आगे दिखती है अब बंद गली।
विसर्जन की वह जगह कौन-सी है-
हिन्द महासागर या हुगली ?
मुश्किल में है इंकलाबी इन्तजार
कि अब किसके नाम दर्ज हो
इस अपाहिज विरासत का भार ?
आदिवासी कलम की धार और हिन्दी संसार
14 years ago