आज का सबसे जटिल सवाल
मित्र, मत पूछो यह फिलहाल,
गीत कब खो जाता है,
लबों पर सो जाता है।
सुबह-सबेरे
सब को घेरे
अफवाहों का दबा-घुटा-सा शोर
कि आज की भोर
कत्ल की ओर...
मुहल्ले में चौराहे बीच
रक्त की जमा हो गयी कीच।
किसी का खून हो गया, प्रात
एक झुरझुरी भरा आघात
कि बाकी दिन क्या होगा हाल
सुबह का रक्त सना जब भाल ?
चार कंधों पर चलते शब्द
पसर जाते हैं
पस्त निढाल।
सहमते-से सारे एहसास
कि ऐसी हत्याओं के पास
एक आतंक
घूमता है बिल्कुल निश्शंक,
जेल से छुटे हुए
खुफिया चेहरों के डंक।
चतुर्दिक झूठा रक्षा चक्र
आम जीवन-समाज दुश्चक्र।
शब्द हो जाते हैं लाचार,
नहीं दिखता कोई उपचार।
प्रशासन देता सिर्फ कुतर्क-
तर्क का बेड़ा करता गर्क।
भेड़ है कौन ? भेड़िया कौन ?
व्यवस्था मिटा रही यह फर्क।
किन्तु मथता है एक विचार
कि सोचो अब
क्या हो प्रतिकार।
अजब है ऐसा लोकाचार
कि पशुता का अरण्य विस्तार...
इसी बीहड़ जंगल के बीच
प्रश्न जब ले जाते हैं खींच,
गीत तब खो जाता है,
लबों पर सो जाता है।
आदिवासी कलम की धार और हिन्दी संसार
14 years ago
3 comments:
भेड़ है कौन ? भेड़िया कौन ?
व्यवस्था मिटा रही यह फर्क।
किन्तु मथता है एक विचार
कि सोचो अब
क्या हो प्रतिकार।
अजब है ऐसा लोकाचार
कि पशुता का अरण्य विस्तार...
इसी बीहड़ जंगल के बीच
प्रश्न जब ले जाते हैं खींच,
गीत तब खो जाता है,
लबों पर सो जाता है।
एक अबूझ सवाल !!
चार कंधों पर चलते शब्द
पसर जाते हैं
पस्त निढाल।
एक विद्रूप समय की गहन धुंध मे शब्दों की यह निरीहता और निर्बलता ही गीतों के इस जीवनद्रव्य को सुखा देती है..
समय के प्रतिकार की भाषा की यह खोज भी अंततः पराक्रमी ऊर्जावान शब्दों के दर पर ही खत्म होगी.
प्रतिकार की भाषा कर्म है, शब्दों का बड़बोलापन कतई नहीं। समय और समाज की स्थितियां अगर करूणा को जन्म देती हैं तो उन्हें सिर्फ गलतबयानी से नहीं बदला जा सकता भाई।
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