सात सुरों की धुन पढ़ें अपनी लिपि में, SAAT SURON KI DHU Read in your own script,

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Saturday, June 6, 2009

एक पिता का पत्र

वत्स!
इस भग्न कृपाण और खंडित ढाल से
यह युद्ध मुझसे खींचा नहीं जाता।
मेरे पिता ने मुझे सौंपा था जो शस्त्रागार,
वहां से सिर्फ आस्था का कवच चुनकर
मैं इस संग्राम भूमि में आ गया था।
मुझे शेष सारे हथियार
जीवन की दुर्गम वनस्थली से मिले हैं।
यह तुम्हें बतला दूं
कि जिन मार्गों से गुजर कर
हम यहां तक चले आये हैं,
अब उन पर बटमारों का कब्जा है।

मैं फिलवक्त हारे हुए युद्ध का
घायल सैनिक हूं
और संघर्ष के मैदान के सिवा
कोई वसीयत तुम्हें लिख नहीं सकता
किंतु यह याद रखना वत्स!
कि इतिहास की कोई पुस्तक
तुम्हें यह नहीं बतलायेगी
कि किस तरह कोई महान देश
अंधेरी सुरंगों में उतर जाता है
और राजसत्ता मक्कार जनसेवकों का
पांवपोश बन जाती है।

एक सुबह सफेद बगुलों को
अपने सीमांतों से बाहर
सात समंदर पार धकिया कर
तिरंगे आकाश के नीचे
हमने राष्ट्रधुन बजायी थी,
उस महोत्सव में
जिन्होंने शपथग्रहण का मंत्र पढ़ा था,
उनके लिए यह तंत्र कच्चा घड़ा था।
एक जनद्रोही जमात को
देश की नकेल थमा कर
जो कुछ किया था वक्त ने,
वह मदारियों की अदला-बदली थी
शायद!
अन्यथा
पैंतीस करोड़ नरों की नरशक्ति
सत्तर करोड़ वानरों में
कैसे बदल गयी!

2 comments:

Unknown said...

vaastvik kavita_________
shabdon ki bheed men arth se paripoorna ek saarthak kavita__________
kaavyapipasuon ki pyaas shaant karne wali ek saras kavita
is kavita ko mera pranaam !
iske kavi ko mera pranaam !!!
jai ho

रंजना said...

एक सुबह सफेद बगुलों को
अपने सीमांतों से बाहर
सात समंदर पार धकिया कर
तिरंगे आकाश के नीचे
हमने राष्ट्रधुन बजायी थी,
उस महोत्सव में
जिन्होंने शपथग्रहण का मंत्र पढ़ा था,
उनके लिए यह तंत्र कच्चा घड़ा था।
एक जनद्रोही जमात को
देश की नकेल थमा कर
जो कुछ किया था वक्त ने,
वह मदारियों की अदला-बदली थी
शायद!
अन्यथा
पैंतीस करोड़ नरों की नरशक्ति
सत्तर करोड़ वानरों में
कैसे बदल गयी!




.........
अब क्या कहूँ..........

नतमस्तक हूँ....मेरा नमन स्वीकारें...