सात सुरों की धुन पढ़ें अपनी लिपि में, SAAT SURON KI DHU Read in your own script,

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Thursday, November 26, 2009

फर्क

सागर तट पर
एक अंजुरी खारा जल पी कर
नहीं दी जा सकती सागर की परि‍भाषा,
चूंकि‍ वह सि‍र्फ जलागार नहीं होता।
इसी तरह जि‍न्दगी कोई समंदर नहीं,
गोताखोरी का नाम है
और आदमी गंगोत्री का उत्स नहीं,
अगम समुद्र होता है।
धरती कांटे उगाती है।
तेजाब आकाश से नहीं बरसता।
हरि‍याली में ही पलती है वि‍ष-बेल।
लेकि‍न मिट्टी को कोसने से पहले
अच्छी तरह सोच लो।
फूल कहां खि‍लते हैं ?
मधु कहां मि‍लता है ?
चन्दन में सांप लि‍पटे हों
तो जंगल गुनहगार कैसे हुए ?
मशीनें लाखों मीटर कपड़े बुनती हैं,
मगर य‍ह आदमी पर निर्भ‍र है
कि‍ वह सूतों के चक्रव्यूह का क्या करेगा !
मशीनें साड़ी और फंदे में
फर्क नहीं करतीं,
यह तमीज
सि‍र्फ आदमी कर सकता है।

1 comment:

अनिल कान्त said...

वाह !!
आपकी लेखनी बहुत दमदार है
कितनी बेहतरीन बातें आप अपनी रचना के माध्यम से कह गए