इस सुरमई मौसम में
मुश्किलों की बहंगी ढोती जिन्दगी
सिहरती है।
अतृप्त स्वाद, रेशमी स्पर्श,
मनहर दृश्य, गुलाबी गंध
और घटाटोपी कुहासे में
अनगिनत ऐन्द्रिक भूचाल
सदाबहार कामनाओं को
रसभरे इशारे करते हैं।
जिस प्रेमग्रंथ का साठवां संस्करण
प्रस्तुत है मेरे सामने,
उसमें अनगिनत अनलिखी कविताएं
ओस-अणुओं में दर्ज हैं।
कुछेक लिखी गयी थीं गुलाबी किताबों के
रूपहले पन्नों पर।
कई अनछपी डायरियां
संस्मरणों में ढल गयी हैं,
और तमाम गीली स्मृतियां
उच्छवासों में विसर्जित हो चुकी हैं।
ओस में नहायी गुलाबों की घाटी
भली लगती है मुझे आज भी,
मगर फूल तोड़ना सख्त मना है यहां।
मित्रो, वर्जित फलों की सूची लंबी है,
और सभाशास्त्र में उनके स्वाद
सर्वथा निषिद्ध घोषित हैं।
आदम और हव्वा की पीढ़ियां
एक सेब चखने की सजा
भुगतती रही हैं बारबार।
लेकिन स्मृतियां निर्बंध शकुंतलाएं हैं,
उनका अभिज्ञान रचता हूं मैं।
आदिवासी कलम की धार और हिन्दी संसार
14 years ago
2 comments:
बहुत सुन्दर अभिव्यक्ति है शुभकामनायें
अद्भुत !!
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