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Thursday, December 17, 2009

साठ साल के धूपछांही रंग

एक :
कागज पर शब्द लि‍ख कर सोचता हूं
सार्थक हो गया अपना अनकहा,
फागुन से जेठ तक
हर मौसम में भला-बुरा जो भी सहा।

सपनों से अनि‍द्रा तक
चुंबन बरसाती अदाओं के तोरण द्वार
सजा कर
अस्तित्व को घेरते रहे कुछ शब्द-
रंग, गंध, स्पर्श, स्वाद,
सुख, आनन्द, उत्सव, समारोह,
सेहत, जवानी, रूप-सौन्दर्य,
मधु, मदि‍रा, सुधा,
वक्ष, होंठ, कदलि‍वन,
आकाश, क्षि‍ति‍ज, शून्य,
आत्मीय, संगी, मित्र, प्रशंसक,
खरीदार, दरबारी, पुजारी,
पहचान, सम्मान, जय-जयकार,
भ्रान्ति, दि‍वास्वप्न, मि‍थ्या वि‍स्तार।

यह सतरंगी जि‍ल्दोंवाली डायरी
पलट कर देखता हूं जब भी फुरसत में,
अंधे एकान्त का अक्स
खुल जा सि‍म-सि‍म की तर्ज पर
खुलता है यकायक।
अजन्ता-एलोरा के मादक रूपांकन,
कोणार्क के सुगठि‍त प्रस्तर शि‍ल्प
और मांसल चैनलों के वर्जनामुक्त दृश्य
मन के रडार पर अंकि‍त हो जाते हैं
खुद-ब-खुद।

इस दि‍लकश संचि‍का को
बचाये रखने की जुगत नहीं थी अपनी,
फि‍र भी जाने कैसे
मन के नामालूम अंधेरों में
वर्षों छि‍पती रह कर
वह जीवि‍त रही है
और बदराये मौसम में कभी-कभी
लपटीली इबारतों के साथ
मेरे चश्मे पर घि‍रती रही है।

1 comment:

परमजीत सिहँ बाली said...

बहुत सुन्दर व बढ़िया रचना है।

एक :
कागज पर शब्द लि‍ख कर सोचता हूं
सार्थक हो गया अपना अनकहा,
फागुन से जेठ तक
हर मौसम में भला-बुरा जो भी सहा।