अरे ओ खजांची,
जब तुम्हारे सामने रखी होंगी
तिजोरी की चाबियां,
मगर वहां तक पहुंचने में
असमर्थ होंगे तुम्हारे हाथ,
चेक बुक पड़ा होगा मेज पर
और दस्तखत करते कांपेंगी उगलियां,
जब छप्पन भोग की सजी हुई थाल से
जायकेदार निवाले
नहीं कर सकोगे अपने मुंह के हवाले,
जब कभी प्यास से अकडी़ होगी हलक
मगर गिलास नहीं पहुंचेंगे होंठों तक,
तो सोचो कैसा होता होगा
लाचार जिन्दगियों का दुख-जाल !
अबे ओ थानेदार,
जब भूख से ऐंठती हों अंतिड़यां
और घर में आधी रोटी भी
मयस्सर नहीं हो,
न फ्रिज, न लॉकर,
न दराज, न तिजोरी,
न चेक बुक, न नगदी,
और चूल्हा हो ठंढा, देगची हो खाली,
तो कैसे बन जाता है
कमजोर आदमी मवाली !
अजी ओ जिलाधीश,
कब तक कतार में झुके रहेंगे
ये शीश ?
बकरे की अम्मा कब तक मनायेगी खैर,
जल में रह कर कैसे निभे मगर से बैर !
जब भारी जुल्म-सितम तारी हो,
सिर्फ सिफर जीने की लाचारी हो,
जिन्दा लाशों का हुजूम हो
गलियों में, सड़कों पर,
और तमाम रास्ते हों बंद,
तब कहां जायेगी यह दुनिया
अमनपसन्द ?
जरा सुनो सरताज,
यह आज देता है किस कल का आगाज ?
क्यों मांगने वाले हाथ
मजबूरन बंदूक थाम लें ?
क्यों मेहनतकश लोग
बेइंतहा गुरबत का इनाम लें ?
बंधुआ अवाम को जिल्लत की जेल से
निकलने के लिए,
देश और दुनिया को बदलने के लिए
क्या तजवीज है तुम्हारे पास ?
ठोस जमीन पर चलो,
मत नापो आकाश।
आदिवासी कलम की धार और हिन्दी संसार
14 years ago
1 comment:
नमन ।
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