सात सुरों की धुन पढ़ें अपनी लिपि में, SAAT SURON KI DHU Read in your own script,

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Saturday, December 19, 2009

साठ साल के धूपछांही रंग-3

साठ ऋतुचक्रों को समर्पि‍त इस यात्रा में
रम्‍य घाटि‍यों से गुजरते हुए
हर मौसम में आठों पहर
सि‍सि‍फस की शापकथा का साक्षी रहा मैं।
अनगि‍नत बार शि‍खर छूने का भरम
और ढलान पर सरकते हुए
धरातल पर वापसी का करम।
कि‍सी क्षण मुझे यह पता नहीं चला
कि‍ त्रि‍शंकु को नि‍यति‍ ने क्‍यों छला !
मैं तंद्रि‍ल कवि‍ताओं की गोष्‍ठी में
आता-जाता रहा कई बार,
मधुमती भूमि‍का से लेकर
बले-बले की धुन में चल रहे
मदहोश महफि‍ल में
तुमुल कोरस का श्रोता
रहा बरसों तक।

पता नहीं,
कि‍तना सही है यह सहज ज्ञान
कि‍ थि‍रकती है देह, और हुलसता है मन,
इससे अधि‍क कुछ नहीं है जीवन।
कोलाहल में आत्‍मा सो जाती है अक्‍सर
और जागती है कभी-कभी
अनहद भोर की चुप्‍पी में।

राग-वि‍राग की सेज पर
करवटें बदलती आयी हैं सदि‍यां,
श्रद्धा और इड़ा की लहरीली चोटि‍यों के बीच
प्रलय की उत्‍ताल तरंगों पर
नौका वि‍हार का पहला यात्री था मनु।
आज भी देह का दावानल तपता है
मानसरोवर की घाटी में,
उस जल प्‍लावन का प्रति‍पल साक्षी है
जो यायावर‍-कवि‍
उसे वि‍‍द्याभूष‍ण कहते हैं।

Friday, December 18, 2009

साठ साल के धूपछांही रंग-2

इस सुरमई मौसम में
मुश्किलों की बहंगी ढोती जि‍न्दगी
सि‍हरती है।
अतृप्त स्वाद, रेशमी स्पर्श,
मनहर दृश्य, गुलाबी गंध
और घटाटोपी कुहासे में
अनगि‍नत ऐन्द्रिक भूचाल
सदाबहार कामनाओं को
रसभरे इशारे करते हैं।

जि‍स प्रेमग्रंथ का साठवां संस्करण
प्रस्तुत है मेरे सामने,
उसमें अनगि‍नत अनलि‍खी कवि‍ताएं
ओस-अणुओं में दर्ज हैं।
कुछेक लि‍खी गयी थीं गुलाबी कि‍ताबों के
रूपहले पन्नों पर।
कई अनछपी डायरि‍यां
संस्मरणों में ढल गयी हैं,
और तमाम गीली स्मृ‍‍ति‍यां
उच्छवासों में वि‍सर्जि‍त हो चुकी हैं।

ओस में नहायी गुलाबों की घाटी
भली लगती है मुझे आज भी,
मगर फूल तोड़ना सख्त मना है यहां।
मि‍त्रो, वर्जित फलों की सूची लंबी है,
और सभाशास्त्र में उनके स्वाद
सर्वथा नि‍षि‍द्ध घोषि‍त हैं।
आदम और हव्वा की पीढ़ि‍यां
एक सेब चखने की सजा
भुगतती रही हैं बारबार।
लेकि‍न स्मृति‍‍यां नि‍र्बंध शकुंतलाएं हैं,
उनका अभि‍ज्ञान रचता हूं मैं।

Thursday, December 17, 2009

साठ साल के धूपछांही रंग

एक :
कागज पर शब्द लि‍ख कर सोचता हूं
सार्थक हो गया अपना अनकहा,
फागुन से जेठ तक
हर मौसम में भला-बुरा जो भी सहा।

सपनों से अनि‍द्रा तक
चुंबन बरसाती अदाओं के तोरण द्वार
सजा कर
अस्तित्व को घेरते रहे कुछ शब्द-
रंग, गंध, स्पर्श, स्वाद,
सुख, आनन्द, उत्सव, समारोह,
सेहत, जवानी, रूप-सौन्दर्य,
मधु, मदि‍रा, सुधा,
वक्ष, होंठ, कदलि‍वन,
आकाश, क्षि‍ति‍ज, शून्य,
आत्मीय, संगी, मित्र, प्रशंसक,
खरीदार, दरबारी, पुजारी,
पहचान, सम्मान, जय-जयकार,
भ्रान्ति, दि‍वास्वप्न, मि‍थ्या वि‍स्तार।

यह सतरंगी जि‍ल्दोंवाली डायरी
पलट कर देखता हूं जब भी फुरसत में,
अंधे एकान्त का अक्स
खुल जा सि‍म-सि‍म की तर्ज पर
खुलता है यकायक।
अजन्ता-एलोरा के मादक रूपांकन,
कोणार्क के सुगठि‍त प्रस्तर शि‍ल्प
और मांसल चैनलों के वर्जनामुक्त दृश्य
मन के रडार पर अंकि‍त हो जाते हैं
खुद-ब-खुद।

इस दि‍लकश संचि‍का को
बचाये रखने की जुगत नहीं थी अपनी,
फि‍र भी जाने कैसे
मन के नामालूम अंधेरों में
वर्षों छि‍पती रह कर
वह जीवि‍त रही है
और बदराये मौसम में कभी-कभी
लपटीली इबारतों के साथ
मेरे चश्मे पर घि‍रती रही है।

Saturday, December 12, 2009

गर्द-गुबार का इजहार

अरे ओ खजांची,
जब तुम्हारे सामने रखी होंगी
ति‍जोरी की चाबि‍यां,
मगर वहां तक पहुंचने में
असमर्थ होंगे तुम्हारे हाथ,
चेक बुक पड़ा होगा मेज पर
और दस्तखत करते कांपेंगी उगलि‍यां,
जब छप्पन भोग की सजी हुई थाल से
जायकेदार नि‍वाले
नहीं कर सकोगे अपने मुंह के हवाले,
जब कभी प्यास से अकडी़ होगी हलक
मगर गि‍लास नहीं पहुंचेंगे होंठों तक,
तो सोचो कैसा होता होगा
लाचार जि‍न्दगि‍यों का दुख-जाल !

अबे ओ थानेदार,
जब भूख से ऐंठती हों अंति‍ड़यां
और घर में आधी रोटी भी
मयस्सर नहीं हो,
न फ्रि‍ज, न लॉकर,
न दराज, न ति‍जोरी,
न चेक बुक, न नगदी,
और चूल्हा हो ठंढा, देगची हो खाली,
तो कैसे बन जाता है
कमजोर आदमी मवाली !

अजी ओ जि‍लाधीश,
कब तक कतार में झुके रहेंगे
ये शीश ?
बकरे की अम्मा कब तक मनायेगी खैर,
जल में रह कर कैसे नि‍भे मगर से बैर !
जब भारी जुल्म-सि‍तम तारी हो,
सि‍र्फ ‍सि‍फर जीने की लाचारी हो,
जि‍न्दा लाशों का हुजूम हो
गलि‍यों में, सड़कों पर,
और तमाम रास्ते हों बंद,
तब कहां जायेगी यह दुनि‍या
अमनपसन्द ?

जरा सुनो सरताज,
यह आज देता है कि‍स कल का आगाज ?
क्यों मांगने वाले हाथ
मजबूरन बंदूक थाम लें ?
क्यों‍ मेहनतकश लोग
बेइंतहा गुरबत का इनाम लें ?
बंधुआ अवाम को जि‍ल्लत की जेल से
नि‍कलने के लि‍ए,
देश और दुनि‍या को बदलने के लि‍ए
क्या तजवीज है तुम्हारे पास ?
ठोस जमीन पर चलो,
मत नापो आकाश।

Tuesday, December 8, 2009

अथ से इति‍ तक

भाई तुलसीदास!
हर युग की होती है अपनी व्‍याधि‍ व्‍यथा।
कहो, कहां से शुरु करूं आज की कथा ?
मौजूदा प्रसंग लंका कांड में अंटक रहा है।
लक्ष्‍मण की मूर्च्‍छा टूट नहीं रही,
राम का पता नहीं,
युद्ध घमासान है,
मगर यहां जो भी प्रबुद्ध या महान हैं,
तटस्‍थ हैं,
चतुर सुजान हैं।
जहर के समन्‍दर में
हरि‍याली के बचेखुचे द्वीपों पर
प्रदूषण की बरसात हो रही है।
आग का दरि‍या
कबाड़ के पहाड़ के नीचे
सदि‍यों से गर्म हो रहा है।
भाई तुलसीदास!
आज पढ़ना एक शगल है,
लि‍खना कारोबार है,
अचरज की बात यह है
कि‍ ‍जि‍सके लि‍ए कि‍ताबें जरूरी हैं,
उसे पढ़ना नहीं सि‍खाया गया,
और जि‍न्‍हें पढ़ना आता है,
उन्‍हें जुन्‍म से लड़ना नहीं आता।
इसलि‍ए भाषण एक कला है,
और जीवन एक शैली है।
जो भी यहां ग्रहरत्‍नों के पारखी हैं,
वे सब चांदी के चक्‍के के सारथी हैं।
वाकई लाचारी है
कि‍ प्रजा को चुनने के लि‍ए हासि‍ल हैं
जो मताधि‍कार,
सुस्‍थापि‍त है उन पर
राजपुरूषों का एकाधि‍कार।
मतपेटि‍यों में
वि‍कल्‍प के दरीचे जहां खुलते हैं,
वहां से राजपथ साफ नजर आता है,
और मुझे वह बस्‍ती याद आने लगती है
जो कभी वहां हुआ करती थी-
चूंकि‍ आबादी का वह काफि‍ला
अपनी मुश्‍कि‍लों का गद्ठर ढोता हुआ
चला गया है यहां से परदेस -
सायरन की आवाज पर
ईंट भद्टों की ‍चि‍म‍नि‍यां सुलगाने,
खेतों-बगानों में दि‍हाड़ी कमाने
या घरों-होटलों में खट कर रोटी जुटाने।
भाई तुलसीदास !
जब तक राजमहलों के बाहर दास बस्‍ि‍तयों में
रोशनी की भारी कि‍ल्‍लत है,
और श्रेष्‍ठि‍जनों की अद्टालि‍काओं के चारोंओर
चकाचौंध का मेला है,
जब तक बाली सुग्रीव के वंशजों को
बंधुआ मजदूर बनाये रखता है,
वि‍भीषण सही पार्टी की तलाश में
बारबार करवटें बदल रहा है,
और लंका के प्रहरी अपनी धुन में हैं,
तब तक दीन-दु‍खि‍यों का अरण्‍य रोदन
सुनने की फुर्सत कि‍सी के पास नहीं।
कलि‍युग की रामायण में
उत्‍तरकाण्‍ड लि‍खे जाने का इन्‍तजार
कर रहे हैं लोग,
सम्‍प्रति‍, राम नाम सत्‍य है,
यह मैं कैसे कहूं !
मगर एक सच और है भाई तुलसीदास!
जि‍न्‍दगी रामायण नहीं, महाभारत है।
कौरव जब सुई बराबर जगह देने को
राजी न हों
तो युद्ध के सि‍वा और क्‍या रास्‍ता
रह जाता है ?
प्रजा जब रोटी मांगती हो
और सम्राट लुई केक खाने की तजवीज
पेश करे
तो इति‍हास का पहि‍या कि‍धर जायेगा ?
डंका पीटा जा रहा है,
भीड़ जुटती जा रही है,
चि‍नगारि‍यां चुनी जा रही हैं,
पोस्‍टर लि‍खे जा रहे हैं,
और तूति‍यां नक्‍कारखाने पर
हमले की हि‍म्‍मत जुटा रही हैं।