सात सुरों की धुन पढ़ें अपनी लिपि में, SAAT SURON KI DHU Read in your own script,

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Sunday, January 31, 2010

वि‍रासत का भार

वाद-वि‍वाद-संवाद गोष्‍ठि‍यों में
अपनी संकटग्रस्‍त आस्‍था के लि‍ए
तर्क-वि‍तर्क-सतर्क बहसों की गि‍रफत में
घु‍ट कर
जब लौटता हूं घर-
अपने अन्‍तरकक्ष में,
मैं संतुष्‍ट आदमी नहीं रह जाता।
कई बेसुरी आवाजें
तमाम सवालों का जायका
कसैला कर देती हैं
कि‍ साठ सालों के सफर में
लाल आंधी की ग्‍लोबल रफ्तार
सि‍यासी वक्‍त की दौड़ में
पीछे क्‍यों रह गयी ?
कई द्वीपों पर बागी परचम
वक्‍ती तौर पर लहराया जरूर,
मगर ति‍रंगे देश की धरती
रह गयी प्‍यासी परती,
इति‍हास के रास्‍तों पर
मील के दीगर पत्‍थर गड़ते रहे
बारबार-लगातार,
और हमारे साथि‍यों की बैरक में
तकरीरें चलती रहीं हांफती चाल।
फि‍लहाल जम्‍हूरी दस्‍तावेजों के काति‍ब
पूछ रहे यह बेमुरब्‍बत सवाल
कि‍ उस सूर्ख परचम को काट-छांट कर
कि‍सने बनाये बीस रूमाल ?
उस सुलगती अंगीठी को जल समाधि‍
कहां-कहां मि‍ली ?
कि‍ आगे दि‍खती है अब बंद गली।
वि‍सर्जन की वह जगह कौन-सी है-
हि‍न्‍द महासागर या हुगली ?
मुश्‍कि‍ल में है इंकलाबी इन्‍तजार
कि‍ अब कि‍सके नाम दर्ज हो
इस अपाहि‍ज वि‍रासत का भार ?

Saturday, January 2, 2010

गीत जब खो जाता है

आज का सबसे जटि‍ल सवाल
मि‍त्र, मत पूछो यह फि‍लहाल,
गीत कब खो जाता है,
लबों पर सो जाता है।
सुबह-सबेरे
सब को घेरे
अफवाहों का दबा-घुटा-सा शोर
कि‍ आज की भोर
कत्‍ल की ओर...
मुहल्‍ले में चौराहे बीच
रक्‍त की जमा हो गयी कीच।
कि‍सी का खून हो गया, प्रात
एक झुरझुरी भरा आघात
कि‍ बाकी दि‍न क्‍या होगा हाल
सुबह का रक्‍त सना जब भाल ?
चार कंधों पर चलते शब्‍द
पसर जाते हैं
पस्‍त नि‍ढाल।
सहमते-से सारे एहसास
कि‍ ऐसी हत्‍याओं के पास
एक आतंक
घूमता है बि‍ल्‍कुल नि‍श्‍शंक,
जेल से छुटे हुए
खुफि‍या चेहरों के डंक।
चतुर्दि‍‍क झूठा रक्षा चक्र
आम जीवन-समाज दुश्‍चक्र।
शब्‍द हो जाते हैं लाचार,
नहीं दि‍खता कोई उपचार।
प्रशासन देता सि‍र्फ कुतर्क-
तर्क का बेड़ा करता गर्क।
भेड़ है कौन ? भेड़ि‍या कौन ?
व्‍यवस्‍था मि‍टा रही यह फर्क।
कि‍न्‍तु मथता है एक वि‍चार
कि‍ सोचो अब
क्‍या हो प्रति‍कार।
अजब है ऐसा लोकाचार
कि‍ पशुता का अरण्‍य वि‍स्‍तार...
इसी बीहड़ जंगल के बीच
प्रश्‍न जब ले जाते हैं खींच,
गीत तब खो जाता है,
लबों पर सो जाता है।

दोहे का दहला

करे ठि‍ठोली समय भी, गर्दिश का है फेर,
यश-वर्षा की कामना, सूखे का है दौर।
महंगाई का जोर है, कि‍ल्‍लत की है मार,
ति‍स पर घी भी ना मि‍ले, कर्ज हुआ दुश्‍वार।
दास मलूका कह गये, सबके दाता राम,
संत नि‍ठल्‍ले हो रहे, उन्‍हें न कोई काम।
नाम-दाम सब कुछ मि‍ले जि‍नके नाथ महंत,
कर्म करो, फल ना चखो, कहें महागुरू संत।
हरदम चलती मसखरी, ऐसी हो दूकान,
मौन ठहाके से डरे, सदगुण से इनसान।
दस द्वारे का पींजरा, सौ द्वारे के कान,
सबसे परनिंदा भली, चापलूस मेहमान।
ऐसी बानी बोलि‍ए जि‍समें लाभ अनेक,
सच का बेड़ा गर्क हो, मस्‍ती में हो शोक।
आडम्‍बर का दौर है, सच को मि‍ले न ठौर,
राजनीति‍ के दावं में पाखंडी ‍ि‍सरमौर।
अपना हो तो सब भला, दूजे की क्‍या बात !
जगत रीति‍ यह है भली दि‍न हो चाहे रात।
राज रोग का कहर है, आसन सुधा समान,
जि‍सको कोई ना तजे, उसे परम पद जान।