सात सुरों की धुन पढ़ें अपनी लिपि में, SAAT SURON KI DHU Read in your own script,

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Thursday, June 11, 2009

जब से शहर बड़े हुए हैं

जब से शहर बड़े हुए हैं,
आदमी की तकलीफें बड़ी हुई हैं,
कामगारों के जुलूस बड़े हुए हैं,
मजदूरों के मांग-पत्र बड़े हुए हैं,
लाठियों की किस्में बड़ी हुई हैं,
घायल बदन में दर्द बड़ा हुआ है।

जब से शहर बड़े हुए हैं,
एक खतरे का एलार्म सुन रहा हूं मैं
कि तमाम जेलों, मिलों, दफ्तरों,
काली बस्तियों और सफेद गद्दियों से
उठकर कुछ लोग
हरियाली की ओर गये हैं।
उनके ढोर-डंगर भी जाते दिखे,
लाव-लश्कर, माल-असबाब सभी गये।

मगर खच्चरों की पीठ पर
कोई पुस्तकालय नहीं गया।
गदहों पर
अस्पताल की दवाइयां नहीं लादी गयीं।
घोड़ों पर खिलौने, फूल, वाद्य यंत्र
या मिठाइयां नहीं थीं,
बैलों पर कृषि यंत्र,
खाद की बोरियां या कपड़े नहीं लदे।

जी हां, कई छकड़ों पर लदे
सामानों की फेहरिस्त मैं बता सकता हूं,
मोटी महाजनी बहियां थीं,
हथियार समेत खाकी वर्दियां थीं,
दारू के पीपे थे, और
उपभोक्ता बाजार के कबाड़ से लैस
तरह-तरह के खुराफाती लोग।
दोस्तो,
जब से शहर बड़े हुए हैं,
कतारें लंबी हुई हैं,
जीभ दुगुनी हुई है,
भूख चौगुनी हुई है,
वहशियत सौगुनी हुई है
और बनियेपन का कोई हिसाब नहीं।

Saturday, June 6, 2009

एक पिता का पत्र

वत्स!
इस भग्न कृपाण और खंडित ढाल से
यह युद्ध मुझसे खींचा नहीं जाता।
मेरे पिता ने मुझे सौंपा था जो शस्त्रागार,
वहां से सिर्फ आस्था का कवच चुनकर
मैं इस संग्राम भूमि में आ गया था।
मुझे शेष सारे हथियार
जीवन की दुर्गम वनस्थली से मिले हैं।
यह तुम्हें बतला दूं
कि जिन मार्गों से गुजर कर
हम यहां तक चले आये हैं,
अब उन पर बटमारों का कब्जा है।

मैं फिलवक्त हारे हुए युद्ध का
घायल सैनिक हूं
और संघर्ष के मैदान के सिवा
कोई वसीयत तुम्हें लिख नहीं सकता
किंतु यह याद रखना वत्स!
कि इतिहास की कोई पुस्तक
तुम्हें यह नहीं बतलायेगी
कि किस तरह कोई महान देश
अंधेरी सुरंगों में उतर जाता है
और राजसत्ता मक्कार जनसेवकों का
पांवपोश बन जाती है।

एक सुबह सफेद बगुलों को
अपने सीमांतों से बाहर
सात समंदर पार धकिया कर
तिरंगे आकाश के नीचे
हमने राष्ट्रधुन बजायी थी,
उस महोत्सव में
जिन्होंने शपथग्रहण का मंत्र पढ़ा था,
उनके लिए यह तंत्र कच्चा घड़ा था।
एक जनद्रोही जमात को
देश की नकेल थमा कर
जो कुछ किया था वक्त ने,
वह मदारियों की अदला-बदली थी
शायद!
अन्यथा
पैंतीस करोड़ नरों की नरशक्ति
सत्तर करोड़ वानरों में
कैसे बदल गयी!

Wednesday, June 3, 2009

सार्थक कोश की खोज में

मुझे पता है,
तुम्हें चाहिए
सूक्तियों में समां बांधने वाला शब्द-शिल्प,
वाक् चातुरी का बिकाऊ करिश्मा
और भाषा की दिलफरेब बाजीगरी।

मुझे खेद है कि मैं तुम्हें निराश करूंगा।
मैंने डायरी के नीले पन्नों पर दर्ज
मौसमी गीत फाड़ डाले हैं,
पिता के पुस्तकागार से निकाल कर
उमरखैयाम को सूखे कुएं के पास
रख छोड़ा है।

फिलहाल मुझे ऋतु संगीत नहीं चाहिए।
ना ही देखना चाहूंगा मोरपंखी पंडाल,
हाथी दांत की पच्चीकारी निरखते
उकता गया हूं बहुत।

तर्क-कुतर्क के दिशाहीन पांडित्य से
मैं विरत हो चुका।
किंतु पड़ोस से उठती कराहों से
चिंतित हूं अवश्य।

मित्रो!
खोखली राष्ट्र वंदना में
शब्दकोश गढ़ने की मुझे फुर्सत नहीं।
भाड़े पर थिरकने के लिए
मेरी कविता सुलभ नहीं है।
एक युद्ध मुझे पुकार रहा है,
एक जुलूस का मुझे इंतजार है।

विद्याभूषण की आवाज में एक उम्दा ख्याल

पापा की कविता 'एक उम्दा ख्याल' उनकी ही आवाज में आपके लिए इस ब्लॉग पर। कविता से पहले संक्षिप्त टिप्पणी सुशील कुमार अंकन की आवाज में है।



Tuesday, June 2, 2009

एक उम्दा ख्याल

कविता
एलार्म घड़ी नहीं है दोस्तो
जिसे सिरहाने रखकर तुम सो जाओ
और वह नियत वक्त पर
तुम्हें जगाया करे
तुम उसे संतरी मीनार पर रख दो
तो वह दूरबीन का काम देती रहेगी

वह सरहद की मुश्किल चौकियों तक
पहुंच जाती है रडार की तरह
तो भी मोतियाबिंद के शर्तिया इलाज
का दावा नहीं उसका।
वह बहरे कानों की दवा
नहीं बन सकती कभी।
हां, किसी चोट खायी जगह पर
दर्दनाशक लोशन की राहत
दे सकती है कभी-कभी,
और कभी सायरन की चीख़ बन
तुम्हें ख़तरों से सावधान कर सकती है

कविता उसर खेतों के लिए
हल का फाल बन सकती है,
फरिश्ते के घर जाने की खातिर
नंगे पांवों के लिए
जूते की नाल बन सकती है
समस्याओं के बीहड़ जंगल में
एक बाग़ी संताल बन सकती है
और किसी मुसीबत की घड़ी में भी
अगर तुम आदमी बने रहना चाहो
तो एक उम्दा ख्याल बन सकती है।