जब से शहर बड़े हुए हैं,
आदमी की तकलीफें बड़ी हुई हैं,
कामगारों के जुलूस बड़े हुए हैं,
मजदूरों के मांग-पत्र बड़े हुए हैं,
लाठियों की किस्में बड़ी हुई हैं,
घायल बदन में दर्द बड़ा हुआ है।
जब से शहर बड़े हुए हैं,
एक खतरे का एलार्म सुन रहा हूं मैं
कि तमाम जेलों, मिलों, दफ्तरों,
काली बस्तियों और सफेद गद्दियों से
उठकर कुछ लोग
हरियाली की ओर गये हैं।
उनके ढोर-डंगर भी जाते दिखे,
लाव-लश्कर, माल-असबाब सभी गये।
मगर खच्चरों की पीठ पर
कोई पुस्तकालय नहीं गया।
गदहों पर
अस्पताल की दवाइयां नहीं लादी गयीं।
घोड़ों पर खिलौने, फूल, वाद्य यंत्र
या मिठाइयां नहीं थीं,
बैलों पर कृषि यंत्र,
खाद की बोरियां या कपड़े नहीं लदे।
जी हां, कई छकड़ों पर लदे
सामानों की फेहरिस्त मैं बता सकता हूं,
मोटी महाजनी बहियां थीं,
हथियार समेत खाकी वर्दियां थीं,
दारू के पीपे थे, और
उपभोक्ता बाजार के कबाड़ से लैस
तरह-तरह के खुराफाती लोग।
दोस्तो,
जब से शहर बड़े हुए हैं,
कतारें लंबी हुई हैं,
जीभ दुगुनी हुई है,
भूख चौगुनी हुई है,
वहशियत सौगुनी हुई है
और बनियेपन का कोई हिसाब नहीं।
आदिवासी कलम की धार और हिन्दी संसार
14 years ago