झूठ के नगाड़ों पर
सच के बारे में हजारों बयान
रोज आ रहे हैं खबरों में।
हमारी पीढ़ी की उम्र
इसी तरह ठगे जाने में
गुजरी है।
प्रायोजित सभाओं में
इतिहास का झुलसा चेहरा
सामने आया है बार-बार
लगातार ढलान पर फिसलते हुए
जितनी बच पायी हैं
सदी की लहूलुहान आस्थाएं,
चोटिल होती मिसालों के बुत
जितना भर साबुत बच गये हैं,
अमानत की ये बहुतेरी बानगियां
अब किसके हवाले हों,
यह सोचो।
सदी की सूखती टहनियों से
झरते रहे हैं
सब्ज बागों के जो मौसमी फूल,
उन्हें पवित्र किताबों में रख लो।
दसों दिशाओं में
जब-जब बहेगी पछुआ हवा,
चोट खाये पंजरों का दर्द
फिर-फिर जागेगा
और काहिल पुरखों से
अपना हिसाब मांगेगा।
आदिवासी कलम की धार और हिन्दी संसार
14 years ago