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Thursday, October 15, 2009

सबसे हरा भरा-दिन

जब कोई ठूंठ बंजर दिन
घाव की तरह टीसता है,
तब उसकी टभक
ऐसे तमाम दिनों की यादें
ताज़ा कर देती है।

फिर दिनों की कतार जुड़ती जाती है,
उनकी सीढ़ियां बनने लगती हैं,
ऊसर पठार पर जंगल उग जाते हैं
और जिंदगी का हिसाब
उम्र के सफर में
बेहिसाब मुश्किल हो जाता है।

सबसे हरा-भरा दिन वह होता है
जब दर्द घाव का मुंह खोलने लगता है
और घायल आदमी
जुल्मों के खिलाफ बोलने लगता है।

6 comments:

डॉ .अनुराग said...

मन भीग गया है जैसे कुछ टूट गया है अन्दर ..ये कविता कई रोज तक भीतर रहेगी....

परमजीत सिहँ बाली said...

बहुत गहरे भाव लिए एक सुन्दर कविता।

Mishra Pankaj said...

सुन्दर , आपको दीपावली की शुभकामनाये

Udan Tashtari said...

आह!! बहुत भीतर गहरे उतर गई रचना...बहुत समय तक जगाती रहेगी.


सुख औ’ समृद्धि आपके अंगना झिलमिलाएँ,
दीपक अमन के चारों दिशाओं में जगमगाएँ
खुशियाँ आपके द्वार पर आकर खुशी मनाएँ..
दीपावली पर्व की आपको ढेरों मंगलकामनाएँ!

-समीर लाल ’समीर’

डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक' said...

सबसे हरा-भरा दिन वह होता है
जब दर्द घाव का मुंह खोलने लगता है
और घायल आदमी
जुल्मों के खिलाफ बोलने लगता है।

वाह... बहुत उत्तम।

दीपावली, गोवर्धन-पूजा और भइया-दूज पर आपको ढेरों शुभकामनाएँ!

Randhir Singh Suman said...

दीपावली, गोवर्धन-पूजा और भइया-दूज पर आपको ढेरों शुभकामनाएँ!