सात सुरों की धुन पढ़ें अपनी लिपि में, SAAT SURON KI DHU Read in your own script,

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Friday, July 24, 2009

संभावना

दूरभाष पर
तुम्हारा स्वर छलकता है
कि‍ मद्धि‍म मछुआ गीतों की धुंध में
नन्ही डोंगि‍यां ति‍रने लगती हैं।
धड़कनों के पार्श्व संगीत में
कि‍सी लचकती लय की तरह
एकदम नि‍कट चली आती हो तुम
कि‍ जैसे पुरी की सागर-संध्या में
लहराती है क्षि‍ति‍ज-रेखा।

मैं नहीं जानता,
कि‍स दि‍न रेगि‍स्तान बन जायेगी
तुम्‍हारे कहकहों की हरि‍याली,
कब चि‍नक जायेगी
कांच की चूड़ि‍यों-सी खनकती हंसी।
कि‍स क्षण सि‍मट जायेगी
उन्मुक्त‍ संवादों की यह रंग-लड़ी।

सहज संभव है
कि‍ एक दि‍न अकस्मात रुक जाये
यह सैलानी सि‍लसिला,
खंडि‍त हो जाये
जादुई अनुभवों का जलसा-घर।
फि‍र सूख चुकी नदी की तलहटी में
नि‍ष्प्रयोजन बि‍छी हुई रेत‍
मछली और नदी की समाधि‍-कथा को
याद कि‍या करेगी।‍

6 comments:

नीरज गोस्वामी said...

विलक्षण शब्दों के समन्वय से जो रचना आपने रची है वो अप्रतिम है...मेरा साधुवाद स्वीकारें...
नीरज

Unknown said...

gazab ki shaili
gazab ka pravaah
gazab ki kavita

abhinandan aapka ..............

शिक्षा : पीएच. डी. तक। said...

धन्यवाद नीरज और अलबेला जी। आपकी प्रतिक्रियाओं से मनोबल ऊंचा हुआ। सृजन की सार्थकता यही है कि वह अनुभव से अभिव्यक्ति तक लेखक को ले जाती है और अभिव्यक्ति से अनुभव तक अपने उदार पाठकों को।
आपका
विद्याभूषण

दर्पण साह said...

apke vichaar, aapki kavita bahur acchi lagi khaskaar ye line:

मैं नहीं जानता,
कि‍स दि‍न रेगि‍स्‍तान बन जायेगी
तुम्‍हारे कहकहों की हरि‍याली,
कब चि‍नक जायेगी
कांच की चूड़ि‍यों-सी खनकती हंसी।
कि‍स क्षण सि‍मट जायेगी
उन्‍मुक्‍त संवादों की यह रंग-लड़ी।

........

adbhoot abhivyakti....

प्रसन्नवदन चतुर्वेदी 'अनघ' said...

"मैं नहीं जानता,
कि‍स दि‍न रेगि‍स्‍तान बन जायेगी
तुम्‍हारे कहकहों की हरि‍याली,
कब चि‍नक जायेगी
कांच की चूड़ि‍यों-सी खनकती हंसी।
कि‍स क्षण सि‍मट जायेगी
उन्‍मुक्‍त संवादों की यह रंग-लड़ी।"
भावों की सुन्दर प्रस्तुति...बहुत बहुत बधाई...

Murari Pareek said...

अद्भुत शब्दों का मिलाप है | बहुत सुन्दर रचना !!