भाई तुलसीदास!
हर युग की होती है अपनी व्याधि व्यथा।
कहो, कहां से शुरु करूं आज की कथा ?
मौजूदा प्रसंग लंका कांड में अंटक रहा है।
लक्ष्मण की मूर्च्छा टूट नहीं रही,
राम का पता नहीं,
युद्ध घमासान है,
मगर यहां जो भी प्रबुद्ध या महान हैं,
तटस्थ हैं,
चतुर सुजान हैं।
जहर के समन्दर में
हरियाली के बचेखुचे द्वीपों पर
प्रदूषण की बरसात हो रही है।
आग का दरिया
कबाड़ के पहाड़ के नीचे
सदियों से गर्म हो रहा है।
भाई तुलसीदास!
आज पढ़ना एक शगल है,
लिखना कारोबार है,
अचरज की बात यह है
कि जिसके लिए किताबें जरूरी हैं,
उसे पढ़ना नहीं सिखाया गया,
और जिन्हें पढ़ना आता है,
उन्हें जुन्म से लड़ना नहीं आता।
इसलिए भाषण एक कला है,
और जीवन एक शैली है।
जो भी यहां ग्रहरत्नों के पारखी हैं,
वे सब चांदी के चक्के के सारथी हैं।
वाकई लाचारी है
कि प्रजा को चुनने के लिए हासिल हैं
जो मताधिकार,
सुस्थापित है उन पर
राजपुरूषों का एकाधिकार।
मतपेटियों में
विकल्प के दरीचे जहां खुलते हैं,
वहां से राजपथ साफ नजर आता है,
और मुझे वह बस्ती याद आने लगती है
जो कभी वहां हुआ करती थी-
चूंकि आबादी का वह काफिला
अपनी मुश्किलों का गद्ठर ढोता हुआ
चला गया है यहां से परदेस -
सायरन की आवाज पर
ईंट भद्टों की चिमनियां सुलगाने,
खेतों-बगानों में दिहाड़ी कमाने
या घरों-होटलों में खट कर रोटी जुटाने।
भाई तुलसीदास !
जब तक राजमहलों के बाहर दास बस्ितयों में
रोशनी की भारी किल्लत है,
और श्रेष्ठिजनों की अद्टालिकाओं के चारोंओर
चकाचौंध का मेला है,
जब तक बाली सुग्रीव के वंशजों को
बंधुआ मजदूर बनाये रखता है,
विभीषण सही पार्टी की तलाश में
बारबार करवटें बदल रहा है,
और लंका के प्रहरी अपनी धुन में हैं,
तब तक दीन-दुखियों का अरण्य रोदन
सुनने की फुर्सत किसी के पास नहीं।
कलियुग की रामायण में
उत्तरकाण्ड लिखे जाने का इन्तजार
कर रहे हैं लोग,
सम्प्रति, राम नाम सत्य है, यह मैं कैसे कहूं !
मगर एक सच और है भाई तुलसीदास!
जिन्दगी रामायण नहीं, महाभारत है।कौरव जब सुई बराबर जगह देने को
राजी न हों
तो युद्ध के सिवा और क्या रास्ता
रह जाता है ?
प्रजा जब रोटी मांगती हो
और सम्राट लुई केक खाने की तजवीज
पेश करे
तो इतिहास का पहिया किधर जायेगा ?
डंका पीटा जा रहा है,
भीड़ जुटती जा रही है,
चिनगारियां चुनी जा रही हैं,
पोस्टर लिखे जा रहे हैं,
और तूतियां नक्कारखाने पर
हमले की हिम्मत जुटा रही हैं।