सात सुरों की धुन पढ़ें अपनी लिपि में, SAAT SURON KI DHU Read in your own script,

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Friday, July 17, 2009

पुनर्जन्‍म-2

बारबार लगता है
कि‍ अब नहीं फूटेंगी कोंपलें,
कि‍ नि‍पट काठ बन चुका हूं मैं।

बहुत बार लगता है
कि‍ अब कोई घोंसला नहीं बन सकता
यहां-
इस चरमरा चुकी टहनी पर,
कि‍ झुलस चुका है
अनुभ्‍ावों का सघन-मगन जंगल।

कई बार लगता है
‍कि‍ मेरे मि‍जाज पर तारी
बे‍मि‍यादी कर्फयू
कभी खतम नहीं होने वाला,
कि‍ कोई न कोई खौफ
मुझ पर खुफि‍या नजर रखा करेगा
अमन-चैन को थर्राता हुआ।

हर बार
औरत और इमारतों की दुनि‍या में
कुछ भी नहीं चुन पाता मैं
अपने लि‍ए,
यश-अपयश के धर्म-कांटे पर
तुलता हुआ।

अनेक बार
उलझनों के चक्रव्‍यूह से बाहर आकर
बच्‍चों के लि‍ए
टॉफि‍यां खरीदने का खयाल
मुल्‍तवी हो जाता है मुझसे,
समूचा बाजार-प्रांगण
उलझे मन और तलाशती आंखों से
मुआयना करते
मैं गुजार देता हूं दि‍न।

फि‍र अचानक वि‍स्‍ि‍मत हो जाता हूं
जब पाता हूं
कि‍ सूखे काठ में अंकुर फूट रहे हैं,
मुर्दा पेड़ के तनों पर
पत्‍तों के रोमांचल स्‍पर्श
उतर रहे हैं,
और मैं अपनी बनायी जेल से उबर कर
ताजा दूब पर
चल-फि‍र सकता हूं।

3 comments:

रंजना said...

अद्वितीय लिखा है.......बस मन बाँध लिया इस कविता ने.........बहुत बहुत सुन्दर इस रचना को पढ़वाने के लिए आभार.

Pooja Prasad said...

बहुत बार लगता है
कि‍ अब कोई घोंसला नहीं बन सकता
यहां-

फि‍र अचानक वि‍स्‍ि‍मत हो जाता हूं
जब पाता हूं...
कि‍ सूखे काठ में अंकुर फूट रहे हैं,
मुर्दा पेड़ के तनों पर
पत्‍तों के रोमांचल स्‍पर्श
उतर रहे हैं,...

कविता जीवन में बार बार होने वाले एक अहसास का सुंदर चित्रण लगी। निराशा की सूखी जमीन से कैसे खुद ब खुद फूट पड़ती हैं आशा की कोपले..यही कहती लगी कविता। हैप्पी एंडिग फिल्म जैसी। बेहद अच्छी कविता।

शिक्षा : पीएच. डी. तक। said...

कई टिप्पणियों की मार्फत आपको जाना। उम्मीद है अधिक जानने का अवसर भविष्य देगा।