जब से शहर बड़े हुए हैं,
आदमी की तकलीफें बड़ी हुई हैं,
कामगारों के जुलूस बड़े हुए हैं,
मजदूरों के मांग-पत्र बड़े हुए हैं,
लाठियों की किस्में बड़ी हुई हैं,
घायल बदन में दर्द बड़ा हुआ है।
जब से शहर बड़े हुए हैं,
एक खतरे का एलार्म सुन रहा हूं मैं
कि तमाम जेलों, मिलों, दफ्तरों,
काली बस्तियों और सफेद गद्दियों से
उठकर कुछ लोग
हरियाली की ओर गये हैं।
उनके ढोर-डंगर भी जाते दिखे,
लाव-लश्कर, माल-असबाब सभी गये।
मगर खच्चरों की पीठ पर
कोई पुस्तकालय नहीं गया।
गदहों पर
अस्पताल की दवाइयां नहीं लादी गयीं।
घोड़ों पर खिलौने, फूल, वाद्य यंत्र
या मिठाइयां नहीं थीं,
बैलों पर कृषि यंत्र,
खाद की बोरियां या कपड़े नहीं लदे।
जी हां, कई छकड़ों पर लदे
सामानों की फेहरिस्त मैं बता सकता हूं,
मोटी महाजनी बहियां थीं,
हथियार समेत खाकी वर्दियां थीं,
दारू के पीपे थे, और
उपभोक्ता बाजार के कबाड़ से लैस
तरह-तरह के खुराफाती लोग।
दोस्तो,
जब से शहर बड़े हुए हैं,
कतारें लंबी हुई हैं,
जीभ दुगुनी हुई है,
भूख चौगुनी हुई है,
वहशियत सौगुनी हुई है
और बनियेपन का कोई हिसाब नहीं।
आदिवासी कलम की धार और हिन्दी संसार
14 years ago
5 comments:
ise kahte hain lekhni ki karaamaat !!!!!!!
jhinjhod k rakh diya poori maansikta ko...
bahut umda
bahut hi achha laga
badhaai...........................
परम आदरणीय विद्याभूषण जी. आज पहली बार ही आपके ब्लॉग पर आया हूँ..सात नहीं सात करोड़ सुर मिल गए मुझे तो..सच कहूँ तो आप जैसे गुनीजनों का यहाँ होना हमारे लिए अपार गर्व की बात है..saannidhya और sneh bana रहे isliye anusaran कर रहा हूँ
बहुत बढ़िया भावपूर्ण रचना बधाई.
ek aisi rachana jo apane banawat our bunaawat se alag ....bahut khub
शहर बड़े होने से समस्याएँ तो बढ़ी ही है ..साथ ही में आदमी भी भीड़ में अकेला हो गया है...जो उसे और तडपाती.है,परेशान करती है...!शहर बढे है लेकिन आदमी के दायरे घटें है..
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