मुझे पता है,
तुम्हें चाहिए
सूक्तियों में समां बांधने वाला शब्द-शिल्प,
वाक् चातुरी का बिकाऊ करिश्मा
और भाषा की दिलफरेब बाजीगरी।
मुझे खेद है कि मैं तुम्हें निराश करूंगा।
मैंने डायरी के नीले पन्नों पर दर्ज
मौसमी गीत फाड़ डाले हैं,
पिता के पुस्तकागार से निकाल कर
उमरखैयाम को सूखे कुएं के पास
रख छोड़ा है।
फिलहाल मुझे ऋतु संगीत नहीं चाहिए।
ना ही देखना चाहूंगा मोरपंखी पंडाल,
हाथी दांत की पच्चीकारी निरखते
उकता गया हूं बहुत।
तर्क-कुतर्क के दिशाहीन पांडित्य से
मैं विरत हो चुका।
किंतु पड़ोस से उठती कराहों से
चिंतित हूं अवश्य।
मित्रो!
खोखली राष्ट्र वंदना में
शब्दकोश गढ़ने की मुझे फुर्सत नहीं।
भाड़े पर थिरकने के लिए
मेरी कविता सुलभ नहीं है।
एक युद्ध मुझे पुकार रहा है,
एक जुलूस का मुझे इंतजार है।
आदिवासी कलम की धार और हिन्दी संसार
14 years ago
19 comments:
विद्याभूषण जी,
सबसे पहले आपका स्वागत है ब्लॉग दुनियां में
तर्क-कुतर्क के दिशा हीन पांडित्य से
मैं विरत हो चुका।
किंतु पड़ोस से उठती कराहों से
चिंतित हूं अवश्य।
अनुपम अभिव्यक्ति !!
बधाई हो
स्वागतम
तर्क-कुतर्क के दिशा हीन पांडित्य से
मैं विरत हो चुका।
किंतु पड़ोस से उठती कराहों से
चिंतित हूं अवश्य।
वाह ... वाह
बहुत खूब
सुन्दर
अति सुन्दर
बेहतरीन
सामयिक
सारगर्भित
अत्यंत सार्थक कविता !
कविता की अंतिम पंक्तियाँ बार-बार पढने को दिल चाहता है :
खोखली राष्ट्र वंदना में
शब्दकोश गढ़ने की मुझे फुर्सत नहीं।
भाड़े पर थिरकने के लिए
मेरी कविता सुलभ नहीं है।
एक युद्ध मुझे पुकार रहा है,
एक जुलूस का मुझे इंतजार है।
आज की आवाज
मुझे खेद है कि मैं तुम्हें निराश करूंगा।
मैंने डायरी के नीले पन्नों पर दर्ज
मौसमी गीत फाड़ डाले हैं,
पिता के पुस्तकागार से निकाल कर
उमरखैयाम को सूखे कुएं के पास
रख छोड़ा है।
ये पंक्तिया जैसे अपने समय का दस्तावेज है .ओर इस बात का सूचक भी की वक़्त ओर हालात में कुछ ज्यादा परिवर्तन नहीं हुआ है.....
मित्रो!
खोखली राष्ट्र वंदना में
शब्दकोश गढ़ने की मुझे फुर्सत नहीं।
भाड़े पर थिरकने के लिए
मेरी कविता सुलभ नहीं है।
एक युद्ध मुझे पुकार रहा है,
एक जुलूस का मुझे इंतजार है।
यहाँ कवि आशावादी है .....कठोर है...परंतु फिर भी उम्मीद की एक किरण के इंतज़ार में......
कुछ लोग सच में अपने भीतर इतना कुछ समेटे होते है .की मन करता है उन्हें उलीचते रहे ...
शब्द कौतुक का निषेध करती खुद एक शब्द -कौतुकी कविता ! ८० ! % अंक !
आदरणीय,
आपकी कविता से गुजरने का रोमाचंक अहसास...
धन्यवाद...
मुझसे पहली सी मुहब्बत मेरे महबूब न मांग।
कहीं गहरे में फ़ैज़ घूम गये...
एक युद्ध मुझे पुकार रहा है,
एक जुलूस का मुझे इंतज़ार है।
स्वागत है...
तर्क-कुतर्क के दिशा हीन पांडित्य से
मैं विरत हो चुका।
किंतु पड़ोस से उठती कराहों से
चिंतित हूं अवश्य।
बहुत सुन्दर रचना है।बधाई स्वीकारें।
खोखली राष्ट्र वंदना में
शब्दकोश गढ़ने की मुझे फुर्सत नहीं।
भाड़े पर थिरकने के लिए
मेरी कविता सुलभ नहीं है।
एक युद्ध मुझे पुकार रहा है,
एक जुलूस का मुझे इंतजार है।
क्या बात है विद्याभूषण जी बहुत ।खूब बधायी स्वीकारें.
no comment. narayan narayan
इस ओजपूर्ण कविता को पढकर नसों का रक्तसंचार तेज हो गया।
-Zakir Ali ‘Rajnish’
{ Secretary-TSALIIM & SBAI }
chalo....kahin aag toh mili
ye shubh sanket hai......................
जब भी कोई बात डंके पे कही जाती है
न जाने क्यों ज़माने को अख़र जाती है ।
झूठ कहते हैं तो मुज़रिम करार देते हैं
सच कहते हैं तो बगा़वत कि बू आती है ।
फर्क कुछ भी नहीं अमीरी और ग़रीबी में
अमीरी रोती है ग़रीबी मुस्कुराती है ।
अम्मा ! मुझे चाँद नही बस एक रोटी चाहिऐ
बिटिया ग़रीब की रह – रहकर बुदबुदाती है
‘दीपक’ सो गई फुटपाथ पर थककर मेहनत
इधर नींद कि खा़तिर हवेली छ्टपटाती है ।
@Kavi Deepak Sharma
http://www.kavideepaksharma.co.in
http://www.kavideepakharma.com
http://shayardeepaksharma.blogspot.com
achhi koshish
achhi koshish
बहुत सुन्दर रचना है।बधाई स्वीकारें।
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