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Wednesday, June 3, 2009

सार्थक कोश की खोज में

मुझे पता है,
तुम्हें चाहिए
सूक्तियों में समां बांधने वाला शब्द-शिल्प,
वाक् चातुरी का बिकाऊ करिश्मा
और भाषा की दिलफरेब बाजीगरी।

मुझे खेद है कि मैं तुम्हें निराश करूंगा।
मैंने डायरी के नीले पन्नों पर दर्ज
मौसमी गीत फाड़ डाले हैं,
पिता के पुस्तकागार से निकाल कर
उमरखैयाम को सूखे कुएं के पास
रख छोड़ा है।

फिलहाल मुझे ऋतु संगीत नहीं चाहिए।
ना ही देखना चाहूंगा मोरपंखी पंडाल,
हाथी दांत की पच्चीकारी निरखते
उकता गया हूं बहुत।

तर्क-कुतर्क के दिशाहीन पांडित्य से
मैं विरत हो चुका।
किंतु पड़ोस से उठती कराहों से
चिंतित हूं अवश्य।

मित्रो!
खोखली राष्ट्र वंदना में
शब्दकोश गढ़ने की मुझे फुर्सत नहीं।
भाड़े पर थिरकने के लिए
मेरी कविता सुलभ नहीं है।
एक युद्ध मुझे पुकार रहा है,
एक जुलूस का मुझे इंतजार है।

19 comments:

स्वप्न मञ्जूषा said...

विद्याभूषण जी,
सबसे पहले आपका स्वागत है ब्लॉग दुनियां में

तर्क-कुतर्क के दिशा हीन पांडित्य से
मैं विरत हो चुका।
किंतु पड़ोस से उठती कराहों से
चिंतित हूं अवश्य।

अनुपम अभिव्यक्ति !!
बधाई हो

Girish Kumar Billore said...
This comment has been removed by the author.
Girish Kumar Billore said...
This comment has been removed by the author.
Girish Kumar Billore said...

स्वागतम

प्रकाश गोविंद said...

तर्क-कुतर्क के दिशा हीन पांडित्य से
मैं विरत हो चुका।
किंतु पड़ोस से उठती कराहों से
चिंतित हूं अवश्य।


वाह ... वाह
बहुत खूब
सुन्दर
अति सुन्दर
बेहतरीन
सामयिक
सारगर्भित
अत्यंत सार्थक कविता !

कविता की अंतिम पंक्तियाँ बार-बार पढने को दिल चाहता है :
खोखली राष्ट्र वंदना में
शब्दकोश गढ़ने की मुझे फुर्सत नहीं।
भाड़े पर थिरकने के लिए
मेरी कविता सुलभ नहीं है।
एक युद्ध मुझे पुकार रहा है,
एक जुलूस का मुझे इंतजार है।


आज की आवाज

डॉ .अनुराग said...

मुझे खेद है कि मैं तुम्हें निराश करूंगा।
मैंने डायरी के नीले पन्नों पर दर्ज
मौसमी गीत फाड़ डाले हैं,
पिता के पुस्तकागार से निकाल कर
उमरखैयाम को सूखे कुएं के पास
रख छोड़ा है।
ये पंक्तिया जैसे अपने समय का दस्तावेज है .ओर इस बात का सूचक भी की वक़्त ओर हालात में कुछ ज्यादा परिवर्तन नहीं हुआ है.....




मित्रो!
खोखली राष्ट्र वंदना में
शब्दकोश गढ़ने की मुझे फुर्सत नहीं।
भाड़े पर थिरकने के लिए
मेरी कविता सुलभ नहीं है।
एक युद्ध मुझे पुकार रहा है,
एक जुलूस का मुझे इंतजार है।

यहाँ कवि आशावादी है .....कठोर है...परंतु फिर भी उम्मीद की एक किरण के इंतज़ार में......

कुछ लोग सच में अपने भीतर इतना कुछ समेटे होते है .की मन करता है उन्हें उलीचते रहे ...

Arvind Mishra said...

शब्द कौतुक का निषेध करती खुद एक शब्द -कौतुकी कविता ! ८० ! % अंक !

रवि कुमार, रावतभाटा said...

आदरणीय,
आपकी कविता से गुजरने का रोमाचंक अहसास...

धन्यवाद...

Unknown said...

मुझसे पहली सी मुहब्बत मेरे महबूब न मांग।
कहीं गहरे में फ़ैज़ घूम गये...

एक युद्ध मुझे पुकार रहा है,
एक जुलूस का मुझे इंतज़ार है।

स्वागत है...

परमजीत सिहँ बाली said...

तर्क-कुतर्क के दिशा हीन पांडित्य से
मैं विरत हो चुका।
किंतु पड़ोस से उठती कराहों से
चिंतित हूं अवश्य।


बहुत सुन्दर रचना है।बधाई स्वीकारें।

amar barwal 'Pathik' said...

खोखली राष्ट्र वंदना में
शब्दकोश गढ़ने की मुझे फुर्सत नहीं।
भाड़े पर थिरकने के लिए
मेरी कविता सुलभ नहीं है।
एक युद्ध मुझे पुकार रहा है,
एक जुलूस का मुझे इंतजार है।

क्या बात है विद्याभूषण जी बहुत ।खूब बधायी स्वीकारें.

गोविंद गोयल, श्रीगंगानगर said...

no comment. narayan narayan

admin said...

इस ओजपूर्ण कविता को पढकर नसों का रक्तसंचार तेज हो गया।
-Zakir Ali ‘Rajnish’
{ Secretary-TSALIIM & SBAI }

Unknown said...

chalo....kahin aag toh mili
ye shubh sanket hai......................

Kavyadhara said...

जब भी कोई बात डंके पे कही जाती है
न जाने क्यों ज़माने को अख़र जाती है ।

झूठ कहते हैं तो मुज़रिम करार देते हैं
सच कहते हैं तो बगा़वत कि बू आती है ।

फर्क कुछ भी नहीं अमीरी और ग़रीबी में
अमीरी रोती है ग़रीबी मुस्कुराती है ।

अम्मा ! मुझे चाँद नही बस एक रोटी चाहिऐ
बिटिया ग़रीब की रह – रहकर बुदबुदाती है

‘दीपक’ सो गई फुटपाथ पर थककर मेहनत
इधर नींद कि खा़तिर हवेली छ्टपटाती है ।
@Kavi Deepak Sharma
http://www.kavideepaksharma.co.in

http://www.kavideepakharma.com

http://shayardeepaksharma.blogspot.com

islamicweb said...

achhi koshish

islamicweb said...

achhi koshish

राजेंद्र माहेश्वरी said...

बहुत सुन्दर रचना है।बधाई स्वीकारें।

राजेंद्र माहेश्वरी said...

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