सात सुरों की धुन पढ़ें अपनी लिपि में, SAAT SURON KI DHU Read in your own script,

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Friday, July 24, 2009

संभावना

दूरभाष पर
तुम्हारा स्वर छलकता है
कि‍ मद्धि‍म मछुआ गीतों की धुंध में
नन्ही डोंगि‍यां ति‍रने लगती हैं।
धड़कनों के पार्श्व संगीत में
कि‍सी लचकती लय की तरह
एकदम नि‍कट चली आती हो तुम
कि‍ जैसे पुरी की सागर-संध्या में
लहराती है क्षि‍ति‍ज-रेखा।

मैं नहीं जानता,
कि‍स दि‍न रेगि‍स्तान बन जायेगी
तुम्‍हारे कहकहों की हरि‍याली,
कब चि‍नक जायेगी
कांच की चूड़ि‍यों-सी खनकती हंसी।
कि‍स क्षण सि‍मट जायेगी
उन्मुक्त‍ संवादों की यह रंग-लड़ी।

सहज संभव है
कि‍ एक दि‍न अकस्मात रुक जाये
यह सैलानी सि‍लसिला,
खंडि‍त हो जाये
जादुई अनुभवों का जलसा-घर।
फि‍र सूख चुकी नदी की तलहटी में
नि‍ष्प्रयोजन बि‍छी हुई रेत‍
मछली और नदी की समाधि‍-कथा को
याद कि‍या करेगी।‍

पि‍रामि‍ड

सच है
कि‍ एक दि‍न
नहीं रहूंगा मैं।
शायद साबुत रह जायें
ये चंद कवि‍ताएं,
शायद बचे रह सकें
मेरे कुछ शब्द
और यात्रा के अभि‍लेख संजोती
यह डायरी।
प्यास के रेगि‍स्तानी सफर में
जि‍जीवि‍षा की पुकार
वहं तुम्हें टेरती मि‍लेगी।
आखि‍रश कवि‍ता
इससे ज्यादा
कर क्या कर सकती है
कि‍सी वजूद की हि‍फाजत...

Friday, July 17, 2009

पुनर्जन्‍म-2

बारबार लगता है
कि‍ अब नहीं फूटेंगी कोंपलें,
कि‍ नि‍पट काठ बन चुका हूं मैं।

बहुत बार लगता है
कि‍ अब कोई घोंसला नहीं बन सकता
यहां-
इस चरमरा चुकी टहनी पर,
कि‍ झुलस चुका है
अनुभ्‍ावों का सघन-मगन जंगल।

कई बार लगता है
‍कि‍ मेरे मि‍जाज पर तारी
बे‍मि‍यादी कर्फयू
कभी खतम नहीं होने वाला,
कि‍ कोई न कोई खौफ
मुझ पर खुफि‍या नजर रखा करेगा
अमन-चैन को थर्राता हुआ।

हर बार
औरत और इमारतों की दुनि‍या में
कुछ भी नहीं चुन पाता मैं
अपने लि‍ए,
यश-अपयश के धर्म-कांटे पर
तुलता हुआ।

अनेक बार
उलझनों के चक्रव्‍यूह से बाहर आकर
बच्‍चों के लि‍ए
टॉफि‍यां खरीदने का खयाल
मुल्‍तवी हो जाता है मुझसे,
समूचा बाजार-प्रांगण
उलझे मन और तलाशती आंखों से
मुआयना करते
मैं गुजार देता हूं दि‍न।

फि‍र अचानक वि‍स्‍ि‍मत हो जाता हूं
जब पाता हूं
कि‍ सूखे काठ में अंकुर फूट रहे हैं,
मुर्दा पेड़ के तनों पर
पत्‍तों के रोमांचल स्‍पर्श
उतर रहे हैं,
और मैं अपनी बनायी जेल से उबर कर
ताजा दूब पर
चल-फि‍र सकता हूं।

Wednesday, July 15, 2009

पुनर्जन्‍म

बारबार जन्‍म लेता हूं
ज्‍वाला के अग्‍ि‍न-कुंड से,
अपनी ही चिता की आग में
तप कर मैं।

जि‍न्‍दगी गाती है सोहर,
जैसे घूरे पर उगता गुलमोहर।
पवर्ताकार बादलों के धुआं-जाल में
आकाश जब स्‍याह पड़ जाता है,
जहरीले तूफानों के भंवर में
पस्‍त हो उठती है जब हवा,
तब गरजते शोर से थर्राता है
हरा-भरा जंगल।

घाटि‍यों में गश्‍त लगाती कौंध से
पगडंडि‍यां आईना बन जाती हैं।
जब धुआंती घुटन से भर जाता है
मेरा कमरा,
उमसाये दरीचे दम तोड़ने लगते हैं,
नींद के बि‍स्‍तरे पर
कीड़े-मकोड़ों की पलटन
कवायद करती होती है,
मूर्छि‍त अंधेरों में
कि‍सी ग्‍लैशि‍यर का ठंडा एहसास
बि‍छा होता है आसपास।

कभी-कभी अचानक
बन्‍द दरीचे खुल जाते हैं
और सूरज मुक्‍ि‍त सैनि‍क की तरह
सहसा नि‍कट चला आता है।
युयुत्‍सु जि‍जीवि‍षा
मेरी बेड़ि‍यां तोड़ती है,
हथकड़ियां खोलती है।

Tuesday, July 14, 2009

शब्‍द

शब्‍द
कभी खाली हाथ नहीं लौटाते।
तुम कहो प्‍यार‍
और एक तरल रेशमी स्‍पर्श
तुम्‍हें छूने लगेगा।
तुम कहो करुणा
और एक अदेखी छतरी
तुम्‍हारे संतापों पर
छतनार दरख्‍त बन तन जायेगी।
तुम कहो चन्‍द्रमा
और एक दूधपगी रोटी
तुम्‍हें परोसी ‍मि‍लेगी।
तुम कहो सूरज
और एक भरापुरा कार्य ‍दि‍वस
तुम्‍हें सुलभ होगा।
शब्‍द
‍कि‍सी की फ‍‍रि‍याद
अनसुनी नहीं करते।
गहरी से गहरी घाटि‍यों में
आवाज दो,
तुम्‍हारे शब्‍द तुम्‍हारे पास
फि‍र लौट आयेंगे,
लौट-लौट आयेंगे।