दूरभाष पर
तुम्हारा स्वर छलकता है
कि मद्धिम मछुआ गीतों की धुंध में
नन्ही डोंगियां तिरने लगती हैं।
धड़कनों के पार्श्व संगीत में
किसी लचकती लय की तरह
एकदम निकट चली आती हो तुम
कि जैसे पुरी की सागर-संध्या में
लहराती है क्षितिज-रेखा।
मैं नहीं जानता,
किस दिन रेगिस्तान बन जायेगी
तुम्हारे कहकहों की हरियाली,
कब चिनक जायेगी
कांच की चूड़ियों-सी खनकती हंसी।
किस क्षण सिमट जायेगी
उन्मुक्त संवादों की यह रंग-लड़ी।
सहज संभव है
कि एक दिन अकस्मात रुक जाये
यह सैलानी सिलसिला,
खंडित हो जाये
जादुई अनुभवों का जलसा-घर।
फिर सूख चुकी नदी की तलहटी में
निष्प्रयोजन बिछी हुई रेत
मछली और नदी की समाधि-कथा को
याद किया करेगी।
आदिवासी कलम की धार और हिन्दी संसार
14 years ago