बारबार जन्म लेता हूं
ज्वाला के अग्िन-कुंड से,
अपनी ही चिता की आग में
तप कर मैं।
जिन्दगी गाती है सोहर,
जैसे घूरे पर उगता गुलमोहर।
पवर्ताकार बादलों के धुआं-जाल में
आकाश जब स्याह पड़ जाता है,
जहरीले तूफानों के भंवर में
पस्त हो उठती है जब हवा,
तब गरजते शोर से थर्राता है
हरा-भरा जंगल।
घाटियों में गश्त लगाती कौंध से
पगडंडियां आईना बन जाती हैं।
जब धुआंती घुटन से भर जाता है
मेरा कमरा,
उमसाये दरीचे दम तोड़ने लगते हैं,
नींद के बिस्तरे पर
कीड़े-मकोड़ों की पलटन
कवायद करती होती है,
मूर्छित अंधेरों में
किसी ग्लैशियर का ठंडा एहसास
बिछा होता है आसपास।
कभी-कभी अचानक
बन्द दरीचे खुल जाते हैं
और सूरज मुक्ित सैनिक की तरह
सहसा निकट चला आता है।
युयुत्सु जिजीविषा
मेरी बेड़ियां तोड़ती है,
हथकड़ियां खोलती है।
आदिवासी कलम की धार और हिन्दी संसार
14 years ago
3 comments:
waah............aisee kawita jisako naman karane dil chahata hai ......
क्या कहना........लाजवाब....सिम्पली ग्रेट....
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