दूरभाष पर
तुम्हारा स्वर छलकता है
कि मद्धिम मछुआ गीतों की धुंध में
नन्ही डोंगियां तिरने लगती हैं।
धड़कनों के पार्श्व संगीत में
किसी लचकती लय की तरह
एकदम निकट चली आती हो तुम
कि जैसे पुरी की सागर-संध्या में
लहराती है क्षितिज-रेखा।
मैं नहीं जानता,
किस दिन रेगिस्तान बन जायेगी
तुम्हारे कहकहों की हरियाली,
कब चिनक जायेगी
कांच की चूड़ियों-सी खनकती हंसी।
किस क्षण सिमट जायेगी
उन्मुक्त संवादों की यह रंग-लड़ी।
सहज संभव है
कि एक दिन अकस्मात रुक जाये
यह सैलानी सिलसिला,
खंडित हो जाये
जादुई अनुभवों का जलसा-घर।
फिर सूख चुकी नदी की तलहटी में
निष्प्रयोजन बिछी हुई रेत
मछली और नदी की समाधि-कथा को
याद किया करेगी।
आदिवासी कलम की धार और हिन्दी संसार
14 years ago
6 comments:
विलक्षण शब्दों के समन्वय से जो रचना आपने रची है वो अप्रतिम है...मेरा साधुवाद स्वीकारें...
नीरज
gazab ki shaili
gazab ka pravaah
gazab ki kavita
abhinandan aapka ..............
धन्यवाद नीरज और अलबेला जी। आपकी प्रतिक्रियाओं से मनोबल ऊंचा हुआ। सृजन की सार्थकता यही है कि वह अनुभव से अभिव्यक्ति तक लेखक को ले जाती है और अभिव्यक्ति से अनुभव तक अपने उदार पाठकों को।
आपका
विद्याभूषण
apke vichaar, aapki kavita bahur acchi lagi khaskaar ye line:
मैं नहीं जानता,
किस दिन रेगिस्तान बन जायेगी
तुम्हारे कहकहों की हरियाली,
कब चिनक जायेगी
कांच की चूड़ियों-सी खनकती हंसी।
किस क्षण सिमट जायेगी
उन्मुक्त संवादों की यह रंग-लड़ी।
........
adbhoot abhivyakti....
"मैं नहीं जानता,
किस दिन रेगिस्तान बन जायेगी
तुम्हारे कहकहों की हरियाली,
कब चिनक जायेगी
कांच की चूड़ियों-सी खनकती हंसी।
किस क्षण सिमट जायेगी
उन्मुक्त संवादों की यह रंग-लड़ी।"
भावों की सुन्दर प्रस्तुति...बहुत बहुत बधाई...
अद्भुत शब्दों का मिलाप है | बहुत सुन्दर रचना !!
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